पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३५२

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वोद-धर्म-दर्शन २६४ किन्तु प्रात्माभिनिवेश सर्व अकुशल में हेतु है। "बो आत्मा में प्रतिपन्न है, वह उसमें अभिनिविष्ट होता है। श्रात्मा में अभिनिविष्ट काम-सुख के लिए सतृष्ण होता है, तृष्णावश वह सुख-संप्रयुक्त दुःख को नहीं देखता " "जबतक मन अहंकार सहित होता है, तक्तक म-प्रबंध शान्त नहीं होता । जबतक आत्मदृष्टि होती है, तबतक हृदय से अहंकार नहीं जाता । हे बुद्ध ! आपके अतिरिक्त दूसरा नैरात्म्यवादी नहीं है। अतः आपके मत को छोड़कर मोक्षमार्ग नहीं है। (बोधिचर्यावतार पृ० २३०)। श्रात्मा नित्य है, ध्रुव है, वस्तुसत् है, इस दृष्टि का परित्याग करना चाहिये; किन्तु प्राप्ति-सत् अात्मा का प्रतिषेध उच्छेद-दृष्टि है, अर्थात् जो चित्त-संतति कर्म का उत्पाद करती है, और कर्मफल का परिभोग करती है, उस प्राप्ति-सत् श्रात्मा का प्रतिषेध नहीं करना चाहिये। सत्व सचेतन है; असत्व अचेतन है। एक अोर नित्य चित्त-सन्तान है, जो कभी शुद्ध चित्त-वैत्त होता है ( श्रारूप्य-धातु ), और कभी जिसका रूपी श्राश्रय होता है, दूसरी ओर विविध रूप अर्थात् महाभूत और भौतिक रूप है; यथा--पर्वत, देवविमानादि । एक अोर सत्व-लोक है, दूसरी ओर भाजन-लोक । सत्वों के उपभोग के लिए रूप है । रूप चित्त-सन्तान को सेन्द्रिय शरीर ( श्राश्रय ), विज्ञान-विषय, वेदना-विषय, श्राहार और निवास- स्थान प्रदान करता है । रूपी सत्वों की चित्त-सन्तति का निश्रय रूप है, और इस प्रकार इनकी प्रवृत्ति होती है | रूप का ऐसा उपयोग है, वह मत्वों के लिए ही है। जैसी मनुष्य की चेतना, चित्त और कर्म होते हैं, वैसा वह होता है । सत्वों की अवस्था में जो वैचित्र्य पाया जाता है, वह सत्वों की गति का कर्मज है। प्रत्येक के कर्म के अतिरिक्त, कोई दूसरा प्रमुख कारण नहीं है। सर्वास्तिवादी पुनः कहते हैं कि लोक-वैचित्र्य भी सत्वों के कर्म से उत्पन्न होता है । कर्म-फल पंचविध है। इनमें अधिपति-फल कारण-हेतु से निवृत फल है। कारण-हेतु से अधिपति का प्रादुर्भाव होता है । सब धर्म स्वतः से अन्य सब के कारण हेतु हैं । कोई धर्म अपना कारण-हेतु नहीं है । इस अपवाद के साथ सब धर्म, सब संस्कृत धर्मों के कारण-हेतु है, क्योंकि उत्पत्तिमान् धर्मों के उत्पाद के प्रति प्रत्येक धर्म का अविघ्न-भाव से अवश्थान होता है । सत्वों के कर्म का प्रभाव भाजन-लोक पर पड़ता है। सत्वों के पाप से औषध, भूमि-श्रादि बाल-भात्र अल्पवीर्य होते हैं; ऋतु-परिणाम विषम होते हैं; यह शिलावृष्टि, धूलि-वृष्टि, या चीर-वृष्टि से अभिभूत होते है। यह अधिपति-फल है। दूसरी ओर विपाक-फल और निभ्यन्द-फल है । विपाक एक अन्याकृत धर्म है, अर्थात् कुशल और अकुशल से इसका व्याकरण नहीं होता। यह सत्वाख्य है। यह व्याक्त से उत्तर काल में उत्पन्न होता है । विपाक अकुशल या कुशल सासव धर्मों से उत्पादित होता है । हेतु कुशल या अकुशल है, किन्तु फल सदा अव्याकृत है। क्योंकि यह फल स्वहेतु से