पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३५३

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प्रयोदय अध्याय भिन्न है, और 'पाक' है। इसलिए इसे 'विपाक - विसदृश पाक ) कहते हैं। पर्वत-नदी- श्रादि असत्वाख्य धर्मों को विपाक-फल नहीं मानते; यद्यपि वह कुशल-अकुशल कर्मों से उत्पन्न होते हैं। असल्याख्य धर्म स्वभाववश सामान्य हैं। सब लोग उनका परिभोग कर सकते हैं। किन्तु विपाक-फल स्वभावतः स्वकीय है । जिस कर्म की निष्पत्ति मैंने की है, उसके विपाक-फल का भोग दूसरा नहीं कर सकता। विपाक-फल के अतिरिक्त कर्म अधिपति-फल का उत्पाद करता है । सब इस फल का समान परिभोग करते हैं, क्योंकि कर्म-समुदाय इसकी अभिनिर्वृति में सहयोग करता है । अतः भाजन-लोक सत्व-समुदाय के कुशल-अकुशल कमों से जनित होता है। यह अव्याकृत है, किन्तु यह विपाक नहीं है, क्योंकि विपाक एक सत्व-संख्यात धर्म है। अतः यह कारणहेतु-भूत कर्मों का अधिपति-फल है । हेतु-सदृश फल निष्यन्द कहलाता है । सभाग-हेतु और सर्वत्रग-हेतु यह हेतु-द्वय निष्यन्द-फल प्रदान करते हैं, क्योंकि इन दो हेतु का फल स्वहेतु के सदृश है, यथा -कुशलोत्पन्न कुशल और अकुशलोत्पन्न अकुशल । अधिपति-फख और बोक-धातु कर्म के अधिपति-फल से लोक धातु की सृष्टि और स्थिति होती है । लोक-धातु सत्वों के लिए बाह्य-भाव प्रदान करता है। लोक-घात अनन्त हैं । किसी की संवर्तनी ( विनाश) होती है, तो किसी की निवर्तनी ( उत्पत्ति ) होती है । किसी अन्य की स्थिति होती है । एक महाकल्प में ८० अन्तःकल्प होते हैं। इनमें विवर्त, विवृत्त की स्थिति, संवृत्त की स्थिति और संवर्त का समप्रमाण है । एक बार विवृत्त होने पर यह लोक २० अन्तःकल्प तक अवस्थान करता है । लोक-संवर्तनी के अनन्तर दीर्घकाल तक लोक विनष्ट रहता है; २० अन्तर- कल्य तक विनष्ट रहता है । बहां पहले लोक था वहाँ अब अाकाश है । बत्र आक्षेपक कर्मवंश अनागत भाजन-लोक के प्रथम निमित्त प्रादुर्भूत होते हैं, जब आकाश में मन्द मन्द वायु का स्पन्दन होता है, उस समय से २० अन्तरकल्प की परिममाप्ति कहनी चाहिये। जिसमें लोक संवृत्त या और उसे २० अन्तरकल्प का श्रारंभ करना चाहिये, जिस काल में लोक की विवर्तमान अवस्था होती है । वायु की वृद्धि होती जाती है, और अन्त में उसका वायुमण्डल बन जाता है। पश्चात् हम क्रम और विधान से भाजन की उत्ति होती है:-वायुमण्डल, श्रमण्डल, कांचनमयी पृथिवी, सुमेरु अादि । विवर्त कल्म का प्रथम अन्तरकल्प भाजन, ब्राह्म- विमानादि की निति में अतिक्रांत होता है। इस कल्प के अवशिष्ट १६ अन्तरकल्पों में नरक-सत्व के प्रादुर्भाव तक मनुष्यों की श्रायु अपरािमत होती है। जब विवर्तन की परिसमाप्ति होती है, तब उनको श्रायु का ह्रास होने लगता है, यहां तक कि १० वर्ष से अधिक आयु का सत्व नहीं होता। जिस काल में यह ह्रास होता है, वह विवृत्त अवस्था का पहला अन्तरकल्प है।