पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३५४

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२६ बौद्ध धर्मन्दान पश्चात् १८ अन्तरकल्प उत्कर्ष और अपकर्ष के होते हैं । १० वर्ष की आयु से वृद्धि होते होते ८०००० वर्ष की श्रायु होती है । पश्चात् श्रायु का हास होता है, और यह घट कर १० वर्ष की हो जाती है । बिस काल में यह उत्कर्ष और अपकर्ष होता है, वह दूसरा अन्तर- कल्प है। इस कल्प के अनन्तर ऐसे १७ अन्य कल्प होते हैं । बीसवां अन्तरकल्प केवल उत्कर्ष का है। मनुष्यों की आयु की वृद्धि १० वर्ष से ८.०.. वर्ष तक होती है । १८ कल्पों के उत्कर्ष और अपकर्ष के लिए. बो काल चाहिये, वह प्रथम कल्य के अपकर्ष काल और अन्त्य कल्य के उत्कर्ष काल के बराबर है। इस प्रकार लोक २० कल्य तक निर्वृत रहता है। भाजन-लोक की निर्वृति एक अनारकल्प में होती है। यह उन्नीस में व्यास होता है, यह उनीस में शून्य होता है, यह एक अन्तरकल्प में विनष्ट होता है। जब श्रायु १० वर्ष की होती है, तब अन्तरकल्प का निर्माण होता है । तब शस्त्र, रोग और दुर्भिक्ष से नो यथाक्रम सात दिन सात मास, सात दिन सात मास, और सात वर्ष अवस्थान करते हैं; कल्प का निर्याण होता है। कल्प के अन्त में तीन ईतियां होती हैं। कल्प के निर्याण-काल में देव नहीं बरसता । इससे तीन दुर्भिक्षः-चंचु, श्वेतास्थि, शलाकावृत्ति होते हैं। चंचु कोष का दुर्भित है श्वेतास्थि, श्वेत अस्थियों का दुर्भिक्ष है; शलाकावृत्ति वह दुर्भित है, जिसमें जीवन-यापन शलाका पर होता है। इसमें गृह के प्राणी शलाका की सूचना के अनुसार भोजन करते हैं; श्राम गृहपति की पारी है; कल गृहपत्नी की पारी है। अब संवर्तनी का समय उपस्थित होता है । सत्व अधर-भाजनों से अन्तर्हित होते हैं, और किसी ध्यानलोक में संनिपतित होते हैं । अग्नि-संवर्तनी सप्त सूों से, जल-संवर्तनी वर्षावश और वायु संवर्तनी वायु-धातु के क्षोभ से होती है। इन संवनियों का यह प्रभाव होता है कि विनष्ट भाजन का एक भी परमाणु शवशिष्ट नहीं रहता। चतुर्थ ध्यान अनिश्चित ( स्पन्दन-हीन) है । इससे उसमें संवर्तनी नहीं है । द्वितीय ध्यान अग्नि-संवर्तनी की सीमा है। इसके नीचे जो कुछ है, वह सब दग्ध हो जाता है । नृतीय ध्यान बल-संवर्तनी की सीमा है । इसके जो अधः है, वह सब विलीन हो जाता है। चतुर्थ ध्यान वायु-संवर्तनी की सीमा है। इसके जो अधः है, वह सब विकीर्ण हो जाता है। मनुष्य-जन्म में जो कर्म-बल से पाक्षिप्त होता है, सदा अकुशल कर्मों का विपाक होता रहता है, जो दुःखावेदना आदि के जनक हैं। यह अकुशल-कर्म मूल में दो प्रकार के होते हैं:-१. यह गुरु हैं, जिन्होंने पूर्व अपाय-जन्म-नारक, तिर्यक् , प्रेत-का उत्पाद किया है, और जो अब अवशिष्ट बल का क्षय मनुष्य जन्म का परिपूरक हो करते हैं । २. यह लघु हैं, जो जन्म के आक्षेपक नहीं हो सकते, और जिनका सारा बल परिपूरक है । यदि कोई पुद्गल निर्धन है, तो इसका यह कारण है कि उसने कोई शुभ कर्म किया है, जिसके सामर्थ्य से वह मनुष्य-जन्म ग्रहण करता है, किन्तु उसने अदत्तादान का अवद्य किया है, विसका विपाक पूर्व नरक में हुआ और अब उसका दण्ड दारिद्रय के रूप में मिला है । अथवा इसका कारण यह है कि मनुष्य-जन्म में, जो अन्यथा शुभ है, उसने दान नहीं दिया है।