पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३५५

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त्रयोदश अध्याय विपाक-फल कर्म नियत या अनियत है । जिसका प्रतिसंवेदन आवश्यक नहीं है, वह अनियत है। नियत कर्म तीन प्रकार का है। १. धर्म-वेदनीय-अर्थात् इसी जन्म में वेदनीय । २. उपपथ-वेदनीय अर्थात् उपपन्न होकर वेदनीय, जिसका प्रतिसंवेदन समनन्तर जन्म में होगा। ३. अपरपर्यायवेदनीय-अर्थात् देर से वेदनीय । अनियत कर्म को संगृहीत कर विपाक की अवस्था की दृष्टि से चार प्रकार होते हैं। एक मत के अनुसार कर्म पाँच प्रकार का है । ये अनियत कर्मों को दो प्रकारों में विभक्त करते हैं- १. नियत-विपाक-वह जिसका विषाक-काल अनियत है,किन्तु जिसका विपाक नियत है । २. अनिमत विपाक-वह जिसका विपाक अनियत है, जो विपच्यमान नहीं हो सकता । दृष्टधर्म-वेदनीय कर्म-वह कर्म है, जो उसी जन्म में विपच्यमान होता है, या विपाक- फल देता है, जहाँ वह संपन्न हुआ है । यह दुर्बल कर्म है । यह जन्म का आक्षेप नहीं करता। यह परिपूरक है। यह स्पष्ट है कि जो पाप दृष्टधर्म-वेदनीय है, वह उस पाप की अपेक्षा लघु है, जिसका विपाक नरक में होता है । सौत्रान्तिकों का कहना है कि यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि एक बलिष्ठ कर्म का विपाक दुर्बल हो। इसलिए दृष्टधर्म-वेदनीय कर्म के विपाक का अनुबन्ध अन्य जन्मों में हो सकता है, किन्तु क्योंकि इस विपाक का प्रारंभ इस दृष्ट जन्म में होता है, इसलिए इस कर्म का 'दृष्ट्रधर्म-वेदनीय' यह नाम व्यवस्थित करते हैं। वैभाषिक इस दृष्टि को नहीं स्वीकार करते। वह कहते हैं कि एक कर्म वे हैं, जिनका सनिकृष्ट फल होता है । दूसरे वे हैं, जिनका विप्रकृष्ट फल होता है। नियत-विपाक कर्म के विपाक का स्वभाव बदल सकता है । संनिकृष्ट जन्म में नरक में वेदनीय अमुक कर्म दृष्टधर्म में विपाक देगा। किन लक्षणों के कारण एक कर्म दृष्टधर्म-वेदनीय होता है । क्षेत्र-विशेष और श्राशय-विशेष के कारण कर्म दृष्टधर्म में फल देता है। क्षेत्र के उत्कर्ष से यद्यपि प्राशय दुर्बल हो, यथा-वह भिन्तु जिसका पुरुष-व्यञ्जन अन्तर्हित होता है, और स्त्री-व्यञ्जन प्रादुर्भूत होता है, क्योंकि उसने संघ का अनादर यह कहकर किया कि- 'तुम स्त्री हो ।। श्राशय-विशेष से, यथा--वह पंढ जिसने वृषभों को अपुंस्त्व के भय से प्रतिमोक्षित किया और अपना पुरुषेन्द्रिय फिर प्राप्त किया। यदि किसी भूमि से किसी का अत्यन्त वैराग्य होता है, तो वह उस भूमि में पुनः उत्पन्न नहीं हो सकता। इसलिए इस भूमि में, किन्तु दूसरे जन्म में, विपच्यमान-कर्म अपने स्वभाव को बदलता है, और दृष्टधर्म में विपच्यमान होता है, चाहे वह कुशल हो या अकुशल । बो कर्म विपाक में नियत है, किन्तु जो विपाक की अवस्था (काल) में अनियत है, वह कर्म दृष्टधर्म-वेदनीय होता है। जो कर्म विपाक की अवस्था में नियत है, उसका उसी