पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३५९

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प्रयोदश अध्याय किन्तु प्रत्येक मनुष्य-जन्म के परिपूरक विविध शुक्र-कृष्ण-कर्म होते हैं । उसी प्रकार मनुष्य का स्वभाव कुशल अकुशल दोनों है। प्रत्येक मनुष्य काम, क्रोध, क्लेश तथा मोह से समन्वागत होता है । इसमें दो अपवाद है-१. शैक्ष मनुष्य-जन्म लेते हैं, क्योंकि वह राग-द्वेप से विनिमुक्त नहीं है, किन्तु मोह से विनिमुक है २. नरम-भविक बोधिसत्व क्लेश से विनिमुक्त है, किन्तु बोधि की रात्रि को ही वह मोह से मुक्त होते हैं। क्योंकि सर्व मनुष्य-जन्म शुभ कर्म से श्राक्षिप्त होता है, अत: सब मनुष्य तीन कुशल- मूल से समन्वागत होते हैं । यह अद्वेष, अलोभ, सम्यग-दृष्टि के भव्य हैं। अवस्थावश कुशल- मूल का समुदाचार होता है । सदुपदेश और मत्संगवश ऐसा होता है | एक पुद्गल प्रकृति से तीव्र राग-द्वेप-मोहजातिक होता है । यह रागज, द्वेषज, मोहन दुःख-दौमनस्य का अभीक्षण प्रतिसंवेदन करता है । वह दुःख-दौमनस्य के साथ रुदन करता हुना परिशुद्ध ब्रह्मचर्य का प्राचरण करता है। वह मरणानन्तर स्वर्ग में उत्पन्न होता है । धर्म- समादान से उसका श्रायति में सुख-विपाक होता है। एक पुद्गल प्रकृति से तीन राग-द्वेष- मोहजातिक नहीं होता। वह रागज, देवज, मोहज दुःख-दौमनस्य का अभीक्षण प्रतिसंवेदन नहीं करता । वह ध्यान में सुगमता से समापन्न होता है, और स्वर्ग में उपपन्न होता है । वह वर्तमान में भी सुखी है, और भविष्य में भी उसका सुख-विपाक है । संसार में पर्याप्त दुःख है, जिससे मनुष्य सरलता से 'सर्व दुःखम्। इस सत्य को तथा वैराग्य और निर्वाण को समझते हैं । देव अत्यन्त सुखी होते हैं। दूसरी ओर नारकों के समान मनुष्य का अविच्छिन्न दुःख नहीं है । किन्तु मनुष्यों में भेद है । कुछ अनेक जन्मों में मनुष्यत्र में नियत है । उन्होंने कुशल-मूल का प्रारोपण किया है । कोई स्रोत-आपन्न हैं और उनके सात भव और है, किन्तु कभी अकरमात् मनुष्य का लाभ होता है ! कर्म-विपाक दुर्विज्ञेय है । नारक और तिर्यग् योनि से मनुष्यस्व की प्राप्ति होती है । इसका कारण कोई पूर्वजन्म कृत दुर्बल शुभ कर्म होता है । मनुष्य-जन्म अाश्चर्यकर घटना है । नरक में दो प्रकार के भिन्न-प्रलाप, पारुष्य, व्यापाद होते हैं। भिन्न-प्रलाप:-क्योंकि नारकीय सत्व परिदेव, विलाप करते हैं । पारुष्य :--क्योंकि नारकीय सत्व अन्योन्य निग्रह करते है, यापा:-क्योंकि चित्त-सन्तान के पारुष्य से वह एक दूसरे से द्वेष करते हैं । नारकीय सत्वों में अभिध्या और मिथ्यादृष्टि होती है, किन्तु नरक में यह संमुखीभावतः नहीं होती । क्योंकि वहाँ सर्व रंजनीय वस्तु का अभाव होता है, और कर्मफल प्रत्यक्ष होता है। नरक में प्राणा- तिपात का अभाव होता है, क्योंकि नारकीय सत्व कविय से च्युत होते हैं। वहाँ अदत्तादान और काम-मिथ्याचार का भी प्रभाव होता है, क्योंकि नारकीय सत्वों में द्रव्य और स्त्री-परिग्रह का अभाव होता है । प्रयोजन के प्रभाव से मृषावाद और पैशुन्य नहीं होता। तिर्यक् का चित्त दुर्बल होता है, किन्तु उसका दुष्ट स्वभाव प्रकट होता है। यह प्रानन्तर्य से पृष्ट नहीं होते। किन्तु जिन पत्रों की बुद्धि पटु होती है, यथा-बाबानेय