पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

किन्तु इस शान तथा दर्शन को मायावत् या छायावत् माना जाता है। चित्त के बाहर जगत् नहीं है । उनका जीवन बिना किसी निमित्त के क्रमशः उन्च उन्च भूमियों का लाभमात्र है । अन्त में त्रिधातु की चित्तमात्रता प्रतीत होने लगती है। यही मायोपम समाधि है। परन्तु जो लोग सब धर्मों का प्रतिष्ठान मानते हैं, उनके सिद्धान्त में विश्व न सत् है, न असत् है, न उभयात्मक है, न अनुमयात्मक है । इसीलिए इस मत में संसार को सत् , असत्, सदसत् , तथा सदसद्-भिन्न चार कोटियों से विनिर्मक माना जाता है। श्राध्यात्मिक दृष्टि से साधन- जीवन की दो अवस्थाएँ है--१. हेतु-रूप या साधन-रूप तथा २. फल-रूप या साध्य-रूप । धान तथा भक्ति मार्ग में जैसे साधनरूप ज्ञानर्भात या साध्य रूप ज्ञानभक्ति दोनों का परिचय मिलता है, उसी प्रकार बौद्धों के साधन को चरमदृष्टि से भी साधन-रूप करुणा और साध्य-रूप करुणा में भेद है। साधनावस्था में भगवान् के चित्तोत्पाद से लेकर बोधिमंड-उपक्रमण, मार-विध्वंसन तथा वनोपम-समाधि पर्यन्त मार्गस्वरूप है। यह मार्ग पारमिता-नय है । फलावस्था में एकादश-भूमि का आविर्भाव माना जाता है। श्राशय तथा प्रयोग के भेद से हेतु भी दो प्रकार के हैं। सर्व सत्वों का बाण श्राशय है तथा दयानुत्पाद ज्ञानरूप बोधि का अवलंबन प्रयोग है । प्रयोग के भी दो प्रकार है । एक का विमुक्तिचर्या से संबन्ध है, दूसरे का भूमि से । पहला दानादिविक्ति में प्रायोगिक है, दूसरा पारमिता- विमुक्ति में पाकिक है। द्विताय के भी दो अवान्तर भेद है । एक में अभिसंस्कार है, द्वितीय में अभिसंस्कार नहीं है। प्रथम में सात भूमियाँ है, क्योंकि श्राभोग तथा निमित्त के प्रभाव से समापिकी प्रवृत्ति होती है। सप्तम भूमि में निमित्त नहीं रहा, किन्तु श्राभोग रहता है । अष्टम म अाभोग भी नहीं रहता। शुद्धभूमि की प्राप्ति होने पर निमित्त और श्राभोग दोनों का अभाव होता है। इसलिए इसमें स्वभावासद्ध समाधि का उदय होता है। इसी के प्रभाव से निखिल जगत् के पावत् अर्थों का सपादन हो जाता है । उस समय परार्थ संपादन होता है और सर्वसीवत् के लाभार्थ सर्वांनुशासन हो सकता है। एक दृष्टि से देखा जाय तो यह भी साधकावस्था ही है। इसमें चार संपत् का उदय होता है । चारी अभ्यास रूप ही ह–१. अशेष पुण्य तथा ज्ञान-संभार का अभ्यास, २. नैरन्तर्य का अभ्यास, ३. दाधकाल का अभ्यास और ४. सत्कार का अभ्यास । पतञ्जलि के योगसूत्र,-- "स तु दांघकालनरन्तयसत्कारांसावता दृदभूमिः" म अन्तिम तीनों का उल्लेख है। सिद्धावस्था दशम भूमि के बाद होती है। उसमें भी चार संपदों का उल्लेख मिलता है-१, प्रहाण, २. ज्ञान, ३. रूपकाय, ४. प्रभाव । प्रत्येक के अवान्तर भेद हैं, जिनका वर्णन यहाँ अनावश्यक है। प्रकृत में वहीं अपेक्षित है, जो रूपकाय संपा-चतुष्क के नाम से निर्दिष्ट है । उसके अन्तर्गत महापुरुष के बत्तीस लक्षण, प्रशोति अनुव्यञ्जन, बल तथा कान अथवा स्थिरदेह है। पातञ्जल-योगसूत्र में कायसंपत् के नाम से पश्चरूप-विशिष्ट पञ्चभूत-जय का जो फल उक्त है, वही यहां सिद्धपुरुप के रूपकाय को स्वाभाविक संपत् कहकर माना गया है। इसमें वो प्रभाव शन्द उल्लिखित है उसका तात्पर्य है, विशिष्ट ऐश्वर्य अथवा ईश्वरत्व ।