पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३६२

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२७४ वाद-धर्म-दर्शन प्रश्न-मान लीजिए कि मेरे अतीत कर्म का अस्तित्व है। यह भी मान लीजिये कि इसमें फल-प्रदान का सामर्थ्य है । क्योंकि मैं उन क्षणिक धर्मों की सन्तति हूँ, जो नित्य उत्पद्यमान होते रहते हैं। इसलिए वह क्या है, जो इस फर्म को मुझसे संबद्ध करता है ? उत्तर-स्व-सन्तान-पतित अरूपी संस्कृत धर्म होते हैं ( किन्तु यह चित्त-विप्रयुक्त हैं) जिन्हें 'प्राप्तिः कहते हैं | सर्व कर्म कर्ता में इस कर्म की प्राप्ति' का उत्पाद करते हैं । इसी प्रकार सर्व चित्त, सर्व राग उस चित्त, उस राग की 'प्राप्ति का उत्पाद करते है। इस 'प्राप्ति का निरोध होता है, किन्तु यह स्वसदृश एक 'प्राप्ति का उत्पाद करती है। जबतक हम इन कमों की प्राप्ति का 'छेद' नहीं करते, तबतक हम अपने कर्मों की प्राप्ति से समन्वागत होते हैं । जब हम इस 'प्राप्ति के निरन्तर उत्पाद का निरोध करते हैं, तब इस 'प्राप्ति का छेद होता है । इस प्रकार कर्म कर्ता को फल-प्रदान करते हैं। मध्यमकवृत्ति [१७११३] और मध्यमकावतार [६३३६] में चन्द्रकीर्ति ने इस बाद का निराकरण किया है :--कर्म क्रिया-काल में निरुद्ध होता है, किन्तु यह कर्ता के चित्त- सन्तान में एक 'विप्रणाश' नामक द्रव्य का उत्पाद करता है । यह अरूपी धर्म है, किन्तु चित्त से विप्रयुक्त है। यह 'अवित्रणाशा न कुशल है, न अकुशल ! निरुद्ध कर्म 'अविप्रणाश' द्रव्य में अंकित हो जाता है । यह फल को कर्ता से संबद्ध करता है । सौत्रान्तिक सौत्रान्तिक अतीत और 'प्रामि' नामक धर्मों के अस्तित्व को नहीं मानते। यदि अतीत, अनागत द्रव्यसत् हैं तो वह प्रत्युत्पन्न हैं। यदि अतीत कर्म फल-प्रदान करता है, तो उसका प्रात कारित्र है; अतः वह प्रत्युत्पन्न है । यदि बुद्ध अतीत कर्म के अस्तिस्व का उल्लेख करते हैं, तो उनका अभिप्राय केवल इतना है कि अतीत कर्म का विपाक होगा । बुद्ध प्राप्तियों का उल्लेख नहीं करते । सौत्रान्तिकों के अनुसार कर्म चित्त-सन्तान को (चित्त-चैत्त, सेन्द्रियकाय) जिसे तीथिक श्रात्मा' कहते हैं, विपरिणत करता है। कर्म संतान के परिणाम विशेष को निश्चित करता है । इसका प्रकर्ष वह अवस्था है, जो कर्म का विपाक है । दुःखावेदना का उत्पाद होता है, यदि अकुशल-चित्त से संतान का परिणाम-विशेष होता है। चित्त-संतान का कर्म-बल से एफ सूक्ष्म परिणाम होता है, और कर्म के अनुसार चित्त-संतति का निश्रय, दुःख-सुख होता है। सौत्रान्तिक बाखभाव और सेन्द्रियकाय का प्रतिषेध नहीं करते, किन्तु कर्म और कर्म-विपाक को वह केवल चित्त में प्राहित करते प्रतीत होते हैं। विज्ञानवादी-एक ओर वह रूप के अस्तित्व का प्रतिषेध करता है। हम इसके बीच वैभाषिक-सिद्धान्त में पाते है । 'आत्मा' को चिच और वेदना की सन्तान अवधारित करना, जो पूर्ववर्ती चित्त-वेदना से निग्रहीत होता है, यह कहना कि चित्त