पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३६३

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प्रयोदश भन्याय रूप का उत्पाद करता है, वेदना और सेन्द्रियकाय के 'विपाक-फला मानना और बाह्यमाव को अधिपति-फल अवधारित करना विशान-वाद की ओर मुकना है । दूसरी ओर वह सौत्रान्तिको का 'संतान' और 'सूक्ष्म परिणाम' नहीं मानता। 'श्रात्मा' प्रवृत्ति-विज्ञान के संतान से अन्य होगा । हम यह कैसे मान सकते हैं कि ऐसा संतान अनागत चित्त के बीजभूत पूर्व चित्त के चिह धारण करता है, और इसका 'सूक्ष्म परिणाम होता है ? वस्तुतः प्रवृत्ति-विज्ञान का आश्रय एक ालय-विज्ञान होता है, जो बीजों का संग्रह करता है। कर्म-फल का अतिक्रमवा यद्यपि कर्म का विपणाश नहीं है, तथापि फल का समतिकम हो सकता है, यदि अनुतापपूर्वक पाप-विरति हो । मैत्री-भावना द्वारा यदि अवद्यकारा अपने चित्त को विमुक्त करता है, तो जो कर्म उसने किया है, उसका महत्व कम हो जाता है। प्रवारणा (वर्षावास के अंत में मितुओं का एक अनुष्ठान ) के समय संब के संमुख पाप स्वीकार करने से कर्म से शुद्धि होती है । एक प्रश्न है कि क्या परिसमाप्त पाप कर्म को पार-स्वीकरण, पाप-विरति क्षोण कर सकते हैं ? नहीं। किन्तु यदि मोल-कर्म की परिसमाप्ति के समनन्तर अनुताप होता है, तो पृष्ठ के अभाव में कर्म की परिसमाति नहीं होती; यथा--जब प्रयोग का अभाव होता है, या वह दुर्बल होता है, तो अवद्य पूरा नहीं होता। उसी प्रकार जब पापी अपने अवद्य को अवद्य मानता है, और पाप-विरति का समादान करता है, तो अवद्य पूरा नहीं है। यह उसका अतिपक्ष है। निस्त-अनियत विपाक यह कर्म नियत-विपाक (नियतवेदनाब ) है, जो केवल कृत नहीं है, किन्तु उपचित भी है। उपचित-कर्म वह है, जिसको परिसमाप्ति हुई है, और जिसका विधाक दान नियत है। कोई एक दुचरितवश दुर्गति को प्राप्त होता है, कोई दा के कारण, कोई तोन के कारण ( काय, वाक्, मनोदुवरित )। कोई एक कर्मषय के कारण, काई दो के कारण, कोई दश के कारण दुर्गति को प्राप्त होता है। जो जिस प्रमाण के कम प्राप्त होता है, यदि उस कर्म का प्रमाण असमात रहे तो कर्म 'कृत' है, 'उपाचता नहीं। प्रमाण के समाप्त होने से कर्म 'उचित' होता है। अंगुत्तरांनकाय [१।२५०] में है कि थोड़े जल को थोड़े लवण से नमकीन कर सकते हैं, किन्तु यादे बहुमात्रा में भा लवप हो तो वह गङ्गा के जल को नमकीन नहीं कर सकता। तीब नेश, तीम प्रसाद ( श्रद्धा) से किया हुआ कर्म और निरंतर कृत कर्म नियत है। वस्तुतः तीन श्रद्धा और तीन राग सन्तान को अत्यन्त बासित करते हैं । निरन्तर कृत-कर्म चित्त-स्वभाव को बनाता है। यह लक्षण पूर्व लक्षण के विरुद्ध नहीं है। केवल उसो को तोत्र प्रसाद या तीब राग हो सकता है, जिसने बहुकुराज या अकुशल कर्म किए हैं। दुगात को