पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३६५

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प्रयोदश अध्याय पुण्य-परिणामना सामान्य नियम यह है कि कर्म स्वकीय है। जो कर्म करता है, वही उसका फल भोगता है; किन्तु प लि-निकाय में भी पुण्य-परिणामना (पत्तिदान = प्राप्तिदान) है। वह यह भी मानता है कि मृा की सहायता हो सकती है । स्थविरवादी प्रेत और देवों को दक्षिणा देते हैं, अर्थात् भिन्तु को दिए हुए. दान से जो पुण्य ( दक्षिणा ) संचित होता है, उसको देते हैं । हम अपने पुण्य में दूसरे को संमिलित कर सकते हैं, पाप में नहीं । निष्कर्ष यह है कि लिष्ट-धर्म सायद्य, केशान्छन्न और हीन हैं। शुभ और अशुभ धर्म ही प्रणीत है । जो धन हीन है, न प्रणात; वह मध्य है । अतः संस्कृत शुभ-धर्म ही सेव्य है । इन्हीं का अध्यारोपण सन्तान में होना चाहिये । वस्तुतः असंस्कृत-धर्म अनुत्पाद्य हैं । उनका अभ्यास नहीं हो सकता । अस्कृत का कोई फल नहीं है, और फल की दृष्टि से ही भावना होती है।