पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३६७

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चतुर्दश अध्याय १.१ ऐसे हैं, बो निर्वाण को अजात, अमृत, अनन्त कहते हैं। इससे कठिनाई उपस्थित होती है। यूरोपीय विद्वान् , बनूफ के समय से, बार-बार यही मत प्रकट करते पाए है कि निर्वाण अभावमात्र ही हो सकता है । पुसे का मत है कि बौद्ध योगी थे और अवाच्य की अभिज्ञता रखते थे, जो न भाव है, और न अभाव । यह प्रपंचातीत है । वह कहते हैं कि यह समझना कठिन है कि बौद्ध निर्वाण को श्रमूत, योग-क्षेम और अच्युत क्यों कहते हैं। यह अभाव के समानार्थक शब्द नहीं है। रीज़ डेविड्स 'अमृत' का यह निरूपण करते हैं कि यह आर्यों का श्राहार है, और 'निर्वाण' का अर्थ वीतराग पुरुष की सम्यक् प्रज्ञा करते हैं। जब बौद्ध कहते हैं कि बुद्ध ने मार (मृत्यु) पर विजय प्राप्त की है, और अमृत का द्वार उद्घाटित किया है; तो कन इसका यह अर्थ करते हैं कि बुद्ध पर मृत्यु का कोई अधिकार नहीं है, और उन्होंने उस अमृत-पद का अाविष्कार किया है, जिसके द्वारा उस परम-सत्यका अधिगम होता है, जो मनुष्य को मृत्यु पर आधिपत्य प्रदान करता है, उसको निर्भय बनाता है । रोज़ डेविड्स कहते है कि बुद्ध का श्रादर्श अाध्यात्मिक था, और उनके निर्वाण का अर्थ इस लोक में प्रज्ञा और सम्यक-शान्ति द्वारा मोक्ष प्राप्त करना था। किन्तु श्रावक शास्ता के विचारों को यक रीति से समझने में असमर्थ थे, और उन्होंने इस श्रादर्श को अमृत, अनन्त, द्वीपादि की आख्याएँ दी । इससे शास्ता के सिद्धान्त को क्षति पहुँची। पुसे के अनुसार इन विद्वानों की भूल इसमें है कि वह बौद्ध-धर्म को एक वैज्ञानिक मतवाद समझते हैं। वे यह भूल गए कि बौद्ध-धर्म एक वैराग्य-प्रधान धार्मिक संस्था है। सेनात ने इस विचार का विरोध किया है कि बौद्ध-धर्म एक वैज्ञानिक मतबाद है। सेना के अनु- सार निर्वाण का अर्थ भारतवर्ष में सदा से परम-क्षेम और मोक्ष रहा है, जो अभाव की संज्ञा से सर्वथा परे है। सेना ने बौद्ध-धर्म के प्रभाव की परीक्षा की है। उनका कहना है कि बौद्ध-धर्म का उद्गम स्थान योग है । योग भारत की पुरातन शिक्षा है । इसमें यम निमम, ध्यान, धारणा, समाधि और ऋद्धि-सिद्धि का समावेश है। योगी लोकोत्तर-शक्ति का प्रप्ति तथा मोक्ष-लाभ के लिए समान रूप से यत्नवान होता है। यह साधारण विश्वास है कि बुद्ध की शिक्षा का अाधार दान्त ( उपनिषद् ) अथवा सांख्य है । उन्होंने केवल वेदान्त के परमात्मा और सांख्य के पुरुष का प्रतिषेध किया है। यह भी सामान्य विचार है कि बुद्ध शील-व्रत, पौरोहित्य और वर्ण-धर्म के विरोधी थे तथा प्रारंभ से ही बौद्ध-धर्म निरोधवादी या। किन्तु सेना के मत में यह विचार अयथार्थ है । उनका कहना है कि बौद्ध-धर्म का उद्गम एक प्रकार के योग से हुश्रा है, जिसका स्वरूप अभी पूर्णरूप से स्थिर नहीं हुआ था, और जो निःसन्देह निरोधवादी न था। वे यह भी कहते है कि बुद्ध के पश्चात् कई शतान्दियों में इस धर्म में परिवर्तन हुए. और यह ठीक नहीं है कि आरंभ से ही उसका स्वरूप निश्चित था। पुसे कहते हैं कि मैं निश्चितरूप से यह नहीं कह सकता कि निम्न वाक्य बुद्ध-वचन है.- "मैं वेदना का अस्तित्व मानता हूँ, किन्तु मैं यह नहीं कहता कि कोई वेदक है ।" किन्तु निम्न पाक्य बुद्ध का हो सकता है:-"जाति, जरा, रोग, मरण से अभिभूत मैंने अबात, अरूण, प्रवीण