पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३६८

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२८. बौद्ध-धर्म-दर्शन अमृत का अन्वेषण किया है ...."| एक अजात, अजीर्ण, अमृत, अकृत है । यदि अजात न होता तो जात के लिए शरण न होता'......" बर्थ ने (फोर्टी ईयर्स आफ इंडियनिज्म, भा० १, पृ. ३०३) लिखा है कि यदि हम यह चाहते है कि निर्वाण प्रभाव नहीं है, तो हमको उस धर्म की संशा बतानी चाहिये जिसका लक्षण बौद्धों के अनुसार शाश्वतत्व है। किन्तु प्रश्न है कि क्या यह शाश्वत-धर्म निर्वाण नहीं है, बिसे पालि में 'श्रमता धातु' कहा है । पुसे कहते हैं कि प्रारंभ में बौद्धों का लक्ष्य संसार के निःसरण ( पार ), नैश्रेयस- सुख, अनिर्वाच्य अवस्था की प्राप्ति था। कई वचनों से स्पष्ट है कि निर्वाण से उनका अर्थ एक परमार्थ-सत् से था। अभाव एक निकाय-विशेष का ही मत रहा है। कई बचनों से हम यह सिद्ध कर सकते हैं। इसके समर्थन में कई हेतु भी दिर जा सकते हैं। पुसे का मत है कि प्रारंभ की अवस्था में बौद्ध-धर्म निर्वाण को एक अनिर्वचनीय वस्तु-सत् मानता था। वह इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि कई प्रसिद्ध निकाय 'अजात' को वस्तु-सत् मानते हैं। पुसे का मत पुसे ने 'निर्वाण' नाम की पुस्तक में इस विषय की श्रालोचना की है। हम उनके मत का विस्तारपूर्वक वर्णन करेंगे और अन्त में अपना वक्तव्य भी देंगे । पुसे कहते हैं कि बौद्ध-धर्म के दो रूप हैं, इनमें मंद करना चाहिये । ०क उपासको का धर्म है, दूसरा भिक्षुओं का। उपासक स्वर्ग की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होते हैं, और भिक्षु निर्वाण-मार्ग का पथिक है। उपासक स्तूप-चैत्य की पूजा करते हैं, और बौद्ध-तीर्थों की यात्रा करते हैं। वह पंचशील का समादान करते हैं, पाप से विरत रहते हैं, उपवास-व्रत रखते हैं, भितुनों को दान देते हैं, और धर्म-श्रवण करते हैं । शील की रक्षा और दान-पूजा से वह पुण्य-संचय करते हैं, और अभ्युदय श्रासादित करते हैं। उनके धर्म में निर्वाण का कोई बड़ा स्थान नहीं है । यह ठीक है कि प्रत्येक बौद्ध एक दिन निर्वाण के अधिगम की अाशा करता है [ अभिधर्मकोश ४।४६), किन्तु सामान्यतः निर्वाण-मार्ग में प्रवेश करके के लिए भिक्षु-भाव का होना आवश्यक समझा जाता है। अमिधर्मकोश का विचार है कि उपासक अर्हत् हो सकता है। जिस क्षण में वह अर्हत् होता है, उसी क्षण में वह भिक्षु होता है, उसी दिन वह संघ में प्रवेश करता है । मिलिन्दप्रश्न का भी यही मत है । कुछ के अनुसार वह अनागामि-फल का लाभ कर सकता है, किन्तु किसी अवस्था में भी यह अहंत नहीं होता । केवल भितु ही अर्हत् होता है । भिक्षु के लिए. ही निर्वाण का मार्ग है । प्रार्य-मार्ग की चर्या निर्वाण की चर्चा है। संघभद्र कहते है कि निर्माण के विचार- विमर्श में विचिकित्सा का उत्पाद नहीं करना चाहिये। क्योंकि निर्वाण के अधिगम के लिए ही श्रमण संसार का परित्याग करते हैं, और संध में प्रवेश करते हैं । निर्वाण स्वर्ग का विप- यंय सा है। जीव के दीर्घकालीन संसरण में सर्ग एक स्थान है, किन्तु निर्वाण संसार का अन्त है। स्वर्ग पुण्य का विपाक है, किन्तु निर्वाण पाप-पुण्य दोनों से परे है । इसका एकमात्र