पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३६९

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चतुर्दश अध्याय लक्ष्य क्लेश-राग का विनाश है। निर्वाण का अधिगम प्रत्येक को स्वयं करना पड़ता है । उपाध्याय द्वारा मार्ग के भावित होने से शिष्य के क्लेशों का प्रहाण नहीं होता। प्रत्येक को स्वयं इसका साक्षात्कार करना होता है । बुद्ध की विशेषता केवल इसमें है कि उन्होंने सर्वप्रथम मोक्ष-मार्ग का आविष्कार किया और दूसरों का मार्ग-संदर्शन किया। इसी अयं में वह ज्येष्ठ और श्रेष्ठ है । वह दूसरों का त्राण वर-प्रदान कर या अपनी ऋद्धि के बल से अथवा प्रभाव से नहीं करते, किन्तु सद्धर्म की देशना से करते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि उपासक और भिक्षु के उद्देश्य, चर्या और मार्ग में भेद है, और एक दृष्टि से इनका परस्पर विरोध भी है। निर्वाण क्या है । इसमें सन्देह नहीं कि यह परम-क्षेम है, दुःख और संसार का अन्त है, मृत्यु पर विषय है। निर्वाण के यह लक्षण क्या इसलिए है कि यह अभावमात्र है ? अथवा यह अमृत है ! भिनु के लिए मार्ग में उत्तरोत्तर उन्नति करना प्रधान बात है। कई कहेंगे कि निर्वाण का अनुसन्धान करना अनावश्यक है। दूसरे कहते है कि यह अमृत-पद है, या यह सर्व राग, दु:ख, पुनर्जन्म का निरोधमात्र है । यह अमिधर्म का प्रश्न है। इसलिए, हम यह नहीं कह सकते कि एक दूसरे की अपेक्षा अधिक अच्छा है । जिस काल में पिटक का संग्रह हुआ, उस काल में अनेक निर्वाण में प्रविष्ट हो चुके थे। थेर ( स्थविर ) और थेरियों के 'उदानों का संग्रह है, और इनमें निर्वाणाधिगम के सुख का वर्णन पाया जाता है । कई वचन ऐसे हैं जिनसे यह व्यवस्थापित होता है कि भिन्तु और उपासक में बड़ा भेद रखा गया है। जब प्रानन्द बुद्ध से पूछते हैं कि सुगत के धातु-गर्भ के प्रति भिक्षुओं का क्या भाव होना चाहिये, तब बुद्ध उनसे कहते हैं कि- "हे अानन्द ! मेरे धातुओं की पूजा की फिक न करो। सुश्रुत और श्रद्धालु क्षत्रिय, ब्राह्मण और नैगम मेरे धातुओं की पूजा करेंगे। तुम भितुओं को मोक्ष की साधना में संलग्न होना चानिये 7 [ दीघनिकाय, २।१४१]। कभी कभी ऐसी प्रतीति होती है कि भिक्षु-संबर से भक्ति, पूजा और लोकोनर बुद्धवाद से कोई संबन्ध नहीं है। किन्तु यह युक्तियुक्त नहीं है। इसमें सन्देह नहीं कि बौद्ध कौतुक-मंगल तिथि- नक्षत्रादि के विरुद्ध थे। उनमें तर्कवादी भी थे। किन्तु यह एक ही दिक् है । दूसरी ओर हम देखते हैं कि अानन्द को इस बात से बड़ा सन्तोष था कि बुद्ध अपने सामर्थ्य से त्रिसाहस- लोक-धातु को अवभासित कर सकते थे, और अपनी अनुशासनी की वहाँ प्रतिष्ठा कर सकते थे। उदायी आनन्द से कहते हैं कि :- हे भानन्द ! अाप यह कैसे कहते हैं कि शास्ता का यह सामर्थ्य है। इसमें सन्देह नहीं कि बुद्ध के ऋद्धि-बल का उनकी दृष्टि में विशेष महत्व नहीं है, तथापि बुद्ध उदायी से कहते हैं कि तुमको ऐसा नहीं करना चाहिये। इसका प्रमाण है कि बुद्ध ने भिन्तुनों को तीर्थाटन का प्रदेश दिया था, और भिक्षु स्तूप-पूजा करते थे । संघ में भ्याथियों की संख्या बहुत न यो। [कथावत्यु, १७:१] से पता चलता है कि अहंत स्तूपों को माल्य-गन्ध-विलेपन चढ़ाते ये । हम निर्वाण की चर्या को धर्म से पृथक नहीं कर सकते । मार्ग में प्रवेश वही कर सकता है, जिसने पूर्वजन्म में कुशल-मूल का अारोपण किया है [ अभिधर्मकोश ४|१२५, ६।२४, ७।३०,३४ } ।