पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३७

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किसी किसी प्राचार्य के अनुसार इसमें बाल विषयों का निर्माण, परिणाम-संपादन तथा वशित्वरूपी संपत् तया भिन्न भिन्न विभूतियों का अन्तर्भाव है । कोई कोई परवर्ती प्राचार्य पूर्ववर्णित हेतु और फल की अवस्थाओं के अतिरिक्त सम्वार्थ- किया नाम की पृथक् अवस्था भी मानते हैं। इससे एक महत्त्वपूर्ण वात स्पष्ट होती है कि प्राध्या- स्मिक जीवन में मनुष्य का मुख्य लक्ष्य केवल फल-प्राप्ति या सिद्धावस्था का लाम ही नहीं है। इस प्राति को सर्व साधारण के लिए सुलभ करने का प्रयत्न ही सर्वोत्तम लक्ष्य है। इसी का नाम जीव-सेवा है। बौद्ध दार्शनिक इसी को सस्वार्थक्रिया नाम से वर्णित करते हैं। इस मत के अनुसार बोधिचित्तोत्पाद से बोधिमंड-निवेदन पर्यन्त जितनी अवस्थाएँ हैं, वे सब साधन या हेतु के अन्तर्गत हैं । सम्यक्-संबोधि की उत्पत्ति से सर्व क्लेशों के प्रहाण पर्यन्त फलावस्था है। इसके बाद प्रथम धर्मचक्रप्रवर्तन से शासन के अन्तर्धान पर्यन्त तृतीय अवस्था है। इससे यह प्रतीत होता है जि जीव या जगत् की सत्त्वार्थक्रियारूप सेवा यावत् जीवन का लक्ष्य है, अर्थात् यह सृष्टि पर्यन्त रहेगा। यदि सर्व को मुक्ति हो जाय तब शासन, शास्ता और शिष्य कोई नहीं रहेगा । उस समय प्रयोजन का भी प्रभाव हो जायगा। किन्तु जब तक सबकी मुक्ति नहीं होती तबतक जीवसेवा अवश्य रहेगी । इम मत के अनुसार हेतु-अवस्था आशय, प्रयोग और वशिता के भेद से तीन प्रकार की है। सवानिमोक्ष प्रणिधान श्राशय है । प्रयोग दो प्रकार के है-१. सप्त पारमितामय, और २. दश पारमितामय । सप्तपारमिता में दान, शील, क्षान्ति, वीर्य, ध्यान, प्रज्ञा तथा आय हैं । ये लोग भूमिप्राप्त चतुर्विध संपत् से संपन्न हैं । इन संपदों का नाम- अाशय, प्रयोग, प्रतिमाहक तथा देह संपत् है। साधनावस्था में सभी प्रकार के 'आदि- कर्म करने पड़ते हैं। किन्तु सत्वार्थक्रियारूप फलावस्था में अनाभोग से ही प्रवृत्ति होती है, अर्थात् इस अवस्था में अपने आप ही कर्म निष्पन्न होते हैं, अभिमानमूलक कर्म की आवश्यकता नहीं रहती । दस पारमितावादी सात के बाद प्रणिधान, बल और ज्ञान अन्य तीन पारमिताओं को भी स्वीकार करते हैं। (८) बौद्धों के धार्मिक जीवन के उद्देश्य का पर्यालोचन पहले किया गया है, उसका संक्षेप में पुनः स्पष्टीकरण किया जाता है। प्राचीन बौद्ध-धर्म के मुमुक्षुओं में तीन श्रादर्श प्रधानरूप से प्रचलित थे--श्रावक, प्रत्येक-बुद्ध और सम्यक्-संबुद्ध । पूर्वापेक्षया पर पद श्रेष्ठ हैं। श्रावक का श्रादर्श अपेक्षाकृत न्यून होने पर भी पृथगजन से उत्कृष्ट था। यद्यपि भावक और पृथगजन दोनों का समान लक्ष्य व्यक्तिगत दुःख-निवृत्ति था, तथापि पृथगजन को उपायशान नहीं था, श्रावक उपआयज्ञ थे। श्रावक दुःख-निवृत्ति के मार्ग से परिचित थे। यह मार्ग बोधि अथवा ज्ञान है। चार आर्य-सत्यों में यह मार्ग-सत्य है। बोधि या शान उन्हें स्वतः प्राप्त नहीं होता था, उसके उदय के लिए बुद्धादि शास्तात्रों की देशना अपेक्षित थी । इसीलिए इसे औपदेशिक शान कहते हैं । पृथग- बन धर्म, अर्थ, काम इस त्रिवर्ग की सिद्धि में व्याप्त रहते थे, किन्तु श्रावक इससे अतीत थे।