पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३७१

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पादेश अन्याय होता है कि सब प्रकार के मिनु बुद्ध को शास्ता मानते थे, और कर्म फल को स्वीकार करते थे, तथा अमचर्य के नियमों का पालन करते थे। वह संघ में प्रवेश कर सकते थे, यद्यपि उनके अपने वाद और श्राचार ये। केवल एक शर्त थी कि वह अचेलक नहीं रह सकते थे । बहुत काल तक स्थिर रूप न हो सका। विनय के नियमों के साथ साथ 'मार्ग का भी बड़ा महत्व था। श्रागम से मालूम होता है कि प्राचीव प्रातिमोक्ष और अमिधर्म के संबंध में संघ में विवाद होता था। किन्तु चार स्मृत्युपस्थान, चार सम्यक-प्रधान, चार ऋद्धिपाद, श्रद्धादि पंचेन्द्रिय, पाँच बल, सात बोध्या और आर्य-अष्टांगिक-मार्ग के विषय में मतभेद न था। भगवान् श्रानन्द से कहते हैं कि वो विवाद श्राजीव और प्रातिमोक्ष के विषय में होता है, वह अल्पमात्र है, किन्तु यदि मार्ग के विषय में विवाद उत्पन्न हो, तो वह बहुजन का अहित और अनर्थ करेगा [मझिम १२४५]। किन्तु शीतोभूत, विरक्त, वीतराग, आर्य बौद्ध- धर्म की देन नहीं है । यह योग की देन है । यह ठीक है कि बौद्ध-धर्म ने प्रार्थत्व का नियोध किया और प्रार्य को पूचाह बना दिया। बुद्ध को देव की पदवी देने में बौद्ध-धर्म को संकोच होता था, किन्तु यह समाधि का मार्ग था, जिसका लक्ष्य निर्वाण-लाभ था। यह स्पष्ट है कि बौद्ध-धर्म का प्राधार योग की क्रियाएं थीं, किन्तु बौद्ध-धर्म ने इनका उपयोग शील और प्रज्ञा के लिए किया था और श्रार्यत्व को प्रथम स्थान दिया था। बौद्ध-धर्म के अनुसार केश-क्षय और 'अभिसमयः भामएय-फल है। किन्तु यह पाँच अभिशाओं में संग्रहीत है। बौद्धों का विश्वास है कि आर्य अभिशाओं से समन्वागत होता है, किन्तु वह यह भी मानते हैं कि आयतर भी इनसे समन्वागत होते हैं । उनका यह मत नहीं है कि ध्यान-लाभ मोक्ष है, किन्तु समाधि में ही योगी सत्यों की यथार्थ भावना करता है। वह अात्महत्या का प्रतिषेध करते हैं, और जो योगी तालु में बिहा-धारण इत्यादि करता है, उसकी किसी सूत्रान्त में प्रशंसा है और किसी में निन्दा है [ मझिम ४५, शरअंगुत्तर ४।४२६, अभिधर्मकोश ६।४३ ] । संघ में विविध सिद्धान्तों का व्यवस्थापन प्रारंभ में इतना न था। उसके अन्तर्गत नो निकाय थे उनका प्रवचन एक ही था। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि सबको समानरूप से एक ही वचन मान्य है। हम जानते हैं कि पुद्गलवादी कुछ वचनों की प्रामाणिकता नहीं मानते, अन्तराभाव के अपवादक कुछ अन्य वचनों को प्रामाणिक नहीं मानते। यह साधारण रूप से माना जाता है कि मूल संगीति का भ्रस हुश्रा है, किन्तु सामान्यतः विविध निकाय एक ही रचन का अर्थ भिन भिन्न प्रकार से करते हैं। इस संबन्ध में हम संघभर के न्यायानुसार दो वास्य उधत करते हैं। १. संघमा एक सूत्र उदाहृत करते हैं, जिसमें स्पष्टव्य' का लक्षण दिया गया है, और कहते हैं। हमारे प्रतिपक्षी 'स्थविर इस पत्र का अस्तित्व नहीं स्वीकार करते । उनका कहना पयार्य नहीं है, क्योंकि यह स्व संगीति में संग्रहीत है। क्योंकि इसका अन्य सूत्रों से विरोध नहीं है, और यह युक्तिसमत भी है। अतः यह प्रामाणिक है। हमारे प्रतिपक्षी उत्तर देते हैं कि यह संगीति में संग्रहीत नहीं है, क्योंकि यह सामान्यरूप से पठित नहीं है, क्योंकि यह कल्पित है, किन्तु इस प्रकार वादो किसी भी स्त्र का प्रत्यास्थान कर सकता है।