पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३७२

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२८० पोस्टपर्म-दर्शन २. यह लोग व्यर्थ ही कहते है कि अमिधर्म-शास्त्र बुद्धवचन नहीं है, क्योंकि विविध निकायों के अलग-अलग अभिधर्म है। विविध निकायों के सूत्र भी ध्यंजन और अर्थ में भिन्न है। प्रवचन में परस्पर विरोधी वाद है। अनेक निकायों के सहयोग से यह संग्रह प्रस्तुत हुआ है । "बुद्ध ने जो कुछ कहा है वह सब सुभाषित है ।" इसका परिपूरक यह वाक्य है कि "यत्किंचित् सुभाषित है, वह बुद्ध-वचन है ।" ऐतिहासिक काल में निकाय और सिद्धान्तों का विरोध बौद्धों की एकता को नष्ट नहीं करता। इस विरोध के होते हुए भी एक सामान्य विश्वास पाया जाता है । यह विश्वास योग से भिन्न नहीं है । इस योग के तीन या चार प्रधान विचार हैं :--पुनर्जन्म, स्वर्ग-नरक की कल्पना, पुण्य-अपुण्य, मोक्ष, परम और आत्यन्तिक क्षेम तथा मार्ग । दूसरों के समान बौद्धों ने भी इन विचारों को योग से लिया, और इनके मूल अर्थ को सुरक्षित रखते हुए. उनको एक नवीन प्रकार प्रदान किया । विश्वास और सिद्धान्त में विशेष करना अच्छा है। बौद्धों का विश्वास है कि सत्व अनेक जन्मों में संसरण कर अपने कर्मों के फल का भोग करता है, और वह अभिसमय द्वारा मुक्त होता है । बौद्ध विश्वास की यह मूल भित्ति है । इसमें दार्शनिक विश्वास जोड़े गये है। इनमें से कुछ इस विश्वास को विनष्ट करनेवाले हैं, किन्तु विश्वास अडिग होता है। पुनर्जन्म-विश्वास और बाद योग से बौद्ध-धर्म ने पुनर्जन्म और कर्म-फल के बाद को लिया है। बौद्ध-धर्म में कुशल- अकुशल-स्वभाव और बुद्धिपूर्वक किए हुए कर्म की गुरुता पर जोर दिया गया है, तथा मौन, व्रत, लानादि को निरर्थक समझा गया है । कर्म गतियों का श्राक्षेपक है। प्रत्येक जीव अपने मन-धर्म, चेतना और काय-वाक् का परिणाम है । प्राणियों का सामुदायिक कम संवर्त कल्पों के अनन्तर लोक का विवत्तन करता है । कर्म ही 'गृहकारक है। कर्म और उसके फल का निषेध करना मिथ्या-दृष्टि है। परलोक का अपवाद करना और उपपादुक सत्वों के अस्तित्व का प्रतिषेध करना मिथ्या-दृष्टि है। प्रत्येक सत्व अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी है, संसरण के संबंध में बौद्धों का यह सिद्धान्त है। इस विश्वास में सिद्धान्त जोड़ दिए, गए हैं। बौद्ध-धर्म ने विवेचनात्मक मनोविज्ञान का श्राश्रय लिया। उसके अनुसार मामा सेन्द्रिय शरीर-वेदना-संजा-संस्कार-विज्ञानात्मक है । यह नित्य धर्म नहीं है । अाम-बुद्धि और विपरिणाम-बुद्धि में वह विरोध देखता है। वह मात्मा के धर्मों का नैरात्म्य और उनकी शन्यता मानता है । 'मन' 'श्रात्मा' नहीं है, 'मन' 'प्रात्मा का नहीं है, ऐसा मानने का यह आवश्यक अर्थ नहीं है कि प्रात्मा का अस्तित्व नहीं है । यह केवल इस बात की प्रतिचा है कि श्राल्मा मन के परे है। हे मितुओं ! जो तुम्हारा नहीं है, उसका प्रहाण करो " तुम्हारा क्या नहीं है ? चक्षु, अर्थ, चक्षुर्विज्ञान..... "मनो- धर्म ( मनोविज्ञान के विषय ), मनोविज्ञान [ संयुत्त २०३३, ४८२] । उपनिषद् के अनुसार