पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३७४

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ब-वर्म-दर्शन मागम कर्म और कर्म-फल को स्वीकार करता है, किन्तु कारक का प्रतिषेध करता है। कोई सव नहीं है, जिसका संचार (= संक्रान्ति ) हो । किन्तु यह सन्तति जीवित है। मृत्यु से इसका उपच्छेद नहीं होता । मृत्यु केवल उस क्षण को सूचित करती है, जब नई परिस्थितियों में नवीन फर्म-समूह का विपाक प्रारंभ होता है। यह कहना अयथार्थ न होगा कि संतति स्वतंत्र है। अपने कर्म और अपनी इच्छात्रों के वश इसकी प्रवृत्ति होती है। यह सेन्द्रियकाय और स्व-वेदना के विषयों का उत्पाद अन्य संतानों के सहयोग से करती है। सत्य तो यह है कि कोई स्कन्ध एक भव से दूसरे भव में संक्रान्त नहीं होते । वस्तुत: स्त्व का विनाश प्रतिक्षण होता है। वृद्ध शिशु नहीं है, किन्तु उससे मिन्न भी नहीं है। नारक मनुष्य नहीं है, किन्तु अन्य भी नहीं है । यह नैरात्म्य है । यह स्पष्ट है कि यह अपवादिका दृष्टि एक विशेष प्रकार की है। यह अवयवों को देखती है, अवयवी को नहीं। यह केवल धों की सत्ता स्वीकार करती है, धर्मी की नहीं। कोई निस्य श्रात्मा नहीं है। शरीर को 'श्रात्मा' अवधारित करना मूढ़ता नहीं है, क्योंकि उसका दीर्घकालीन अवस्थान होता है; किन्तु जो प्रतिक्षण विसदृश होता रहता है, कैसे प्रात्मा हो सकता है ? नैरात्म्यवाद से पुनर्जन्म और कर्म के प्रति उत्तरदायित्व के सिद्धान्त को क्षति नहीं पहुँचती । श्रात्मा की प्रतिज्ञा करना भूल है; सन्तति का उल्लेख करना चाहिये । संक्रान्ति का उल्लेख करना भूल है; कहना चाहिये कि मरण-चित्त प्रतिसंधि-चित्त का उत्पाद करता है। "विधान का अस्तित्व है, किन्तु विज्ञान नहीं जानता ।" इसमें वाक्-चातुरी है, किन्तु यह एक . पहेली है । एक सूत्रान्त में कहा है कि बुद्ध सर्वश है, क्योंकि जिस संतति की संज्ञा 'बुद्ध' है, उसका यह सामर्थ्य है कि चित्त के श्राभोगमात्र से इस संतति में प्रत्येक विषय को यथाभूत प्रणा उपस्थित होती है। जिस संतति की कल्पना बौद्ध करते है, उसमें प्रात्मा के सब सामर्थ्य पाए जाते हैं। निबांध की कल्पना निर्वाय का वाद भी योग से लिया गया है। सामान्य जन, चाहे यही हो अथवा श्रमय, खों की कामना से संतुष्ट होते हैं। कोई स्वर्ग में अप्सराओं के साथ संभोग करने की कामना से ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। कोई अलौकिक सिद्धियों के लाभ के लिए ध्यान में समापन होते हैं। बुद्ध अभिज्ञानों के बिना आर्यत्व को संभव नहीं मानते, किन्तु यथार्य भिक्षु अव में ध्रुव का अन्वेषण करता है। मोक्ष की एक अतिप्राचीन और लाक्षणिक संशा मोद-संशा निश्रित थी । यह चेतो-विमुक्ति है । मृत्यु पर विजय प्राप्त करके ही बुर 'बुद्ध हुए है । बुद्धत्व प्राप्त करने के अनन्तर शाक्यमुनि का जो पहला उद्गार था, वह यह था कि उन्होंने 'अमृत' का लाभ किया है [ मज्झिमनिकाय १११७२; महावया १६,१२]। हमको संजय के अनुयायी शारिपुत्र और मौद्गल्यायन के संघ में प्रविष्ट होने की कथा विदित