पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चापं अध्याय है।न्होंने आपस में यह समय किया था कि हममें से जो प्रथम अमृत का प्राविष्कार करेगा वह उसे अपने सब्रह्मचारी को बता देगा [महावमा, १२३]। उपनिषदों में अमृत का निर्देश है, और वह उसे 'बम के नाम से संकीर्तित करते है। बौर-धर्म में ब्रह्म की उपेक्षा की गयी है, किन्तु उसकी प्रतिज्ञा है कि 'अमृत' है। इस अमृत को निर्वाण, निरोध, परम-क्षेम, विराग कहते है। बौद्ध-धर्म में श्रामण्य की प्राख्या ब्रह्मचर्य है, और आर्य-समापत्ति को 'ब्रह्मविहार कहते है । भिक्षु के लिए सबसे बड़ा दण्ड 'ब्रह्मदएडा है। 'श्रामण्या 'ब्राझएया है। प्रार्य की संज्ञाएं ब्राह्मण, बेदगू, श्रोत्रिय और स्नातक है। किन्तु बौद्ध उपनिषदों के 'मामा' और 'बमा की उपेक्षा करते हैं। वह वेदान्तवर्णित योग का उल्लेख नहीं करते, चो ईश्वर में बीवात्मा के लीन होने की प्रक्रिया है । इसका कोई प्रमाण नहीं है कि बौद्धों के निर्वाया की कल्पना बामणों की रिसी कल्पना का प्रतिपद थी। निर्वाण एक अदृश्य स्थान है, जहाँ श्रार्य तिरोहित हो बाते है। उदाना१० में [ उदानवर्ग, ३.१३६ में 'अचलं पदं कहा है; अमिधर्मकोश (२२६ ] बुद्ध कहते हैं कि जैसे हम यह नहीं बानते कि निर्वापित अग्नि कहाँ जाती है, उसी प्रकार हम नहीं कह सकते कि वह विमुक्त श्रार्य कहां जाते हैं, जिन्होंने तृष्णारूपी अोष का समतिकम किया है, और जिन्होंने अकोप्य क्षेम का लाभ किया है। निर्वापित होने पर अग्नि अदृश्य हो जाती है, अर्थात् अग्नि नहीं रहती। इसी प्रकार परिनिवृत आर्य, जीव, पुद्गल, वित नहीं रह जाता। भव के जितने परिचित श्राकार है, या जिनकी कल्पना हो सकती है, उनका अतिक्रमण करना ही मोक्ष है । यह अभाव नहीं है। अाईत् का यह पुराना वाक्य विचारणीय है-मेरे लिए बाति (= जन्म ) नहीं है। मैंने अपना कर्तव्य संपन्न किया है। अब मेरे लिए और करणीय नहीं है। यहाँ मेरे पुनः प्रागमन का कोई कारण नहीं है । निर्वाण सर्वश्रेष्ठ सुख है। किन्तु उदायी पूछता है कि निर्वाण मुख कैसे है। क्योंकि वहाँ वेदना का अभाव है । शारिपुत्र उत्तर देते हैं कि निर्वाण सुखवेदना का अभाव ही है [अंगुत्तर, ४४१४] । इससे कोई कोई यह अनुमान करते हैं कि निर्वाण अचेतन अवस्था है, वहां वेदना का अभाव है, और विमुक्त पाषाण के तुल्य सुखी होता है। किन्तु भारतीयों की दृष्टि में पुद्गल और सुख क्या है, यह समझना कठिन है। अवाच्य का लक्षण नहीं बताया पा सकता। कहा जाता है कि संशावेदित-निरोध निर्वाण सदृश है । यह समापत्ति अचेतन अवस्थामात्र नहीं है। अब हमको यह देखना है कि निर्वाण का पीछे क्या स्वरूप हो गया। वो निकाय 'मामा' या 'प्रभास्वर-चिता स्वीकार करते हैं, वह उसे चैतसिक धर्मों का आभय मानते है, और अमृत तथा विनश्वर की संशात्रों को परस्पर संबद्ध करते है। पुद्गलवादी मानते है कि आत्मा एक भव से भवान्तर में संक्रमण करता है, और निर्वाण प्राप्त कर धर्मों के रूप में विद्यमान रह सकता है।