पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३८०

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२१२ पौद्धय पान आभिधार्मिक कहते हैं कि अपने श्रोताओं के चरित के अनुसार बुद्ध विविध पर्याय से देशना करते थे, और इसीलिए कुछ सूत्रान्त 'नीतार्थ है, और कुछ 'नेयार्थ' । आगम के अनुसार बुद्ध एक चिकित्सक हैं । अाभिधार्मिकों के अनुसार वह किसी को पुद्गल की देशना देते है, और किसी को नैरात्म्य की । जो दृष्टि से क्षत होता है, वह आत्मा के अस्तित्व में प्रतिपन्न है। जो संवृति-सत् (प्राप्तिक ) पुद्गल को नहीं मानता, वह कुशल-कर्म का भ्रंश करता है। इसलिए बुद्ध यह नहीं कहते कि जीव अनन्य है या अन्य, और इस भय से कि कहीं ऐसा कहने से लोग यह न समझने लगें कि प्राप्तिक जीव भी नहीं है, वह यह भी नहीं कहते कि जीव का वास्तव में अस्तित्व नहीं है । अत: उनकी देशना उसी प्रकार होती है, जैसे व्याघ्री अपने बच्चे को दांत से पकड़ कर ले जाती है। सेनात अपनी पुस्तक में कहते हैं कि बौद्धों का नास्ति-वाद योग के शील संधी विचारों से प्रभावित हुआ है। इन्द्रिय-विषय के महत्त्व को न मानने से, और इस पर जोर देने से कि विश्नों को इस प्रकार अवधारित करना चाहिये, मानों उनका अस्तित्व ही नहीं है। हम बिना किसी कठिनाई के इम निर्णय पर पहुँच सकते हैं कि इन्द्रियार्थ का अस्तित्व ही नहीं है। 'धम्मपद की एक गाथा और 'संयुत्त' के एक सूत्रान्त [ २२१४२] की परस्पर तुलना करने से इसकी सत्यता स्पष्ट हो जाती है। "जो सत्व लोक को जल-बुद्बुद, मरीचिका श्रादि अवधारित करता है, वह मृत्यु-राज के अधीन नहीं होता।" जिस सूत्रान्त में प्रज्ञापारमिताओं का दर्शन बीजरूप में पाया जाता है, वह पुद्गल के स्कन्धों को द्रव्य-मत् नहीं मानता, उसको असद्भूत मानता है । बुद्ध ने कहा है कि शरीर फेनोपम है । वेदना जल-बुद्बुद के समान है, संज्ञा मरीचिका के तुल्य है, संस्कार कदली स्तम्भवत् नि सार है, विज्ञान मायावत् प्रतिभाम है। आर्य-मार्ग के मिद्धान्त और उसके अभ्यास का झुकाव पुद्गल-नेरात्म्य को श्रोर या; पश्वान् वह धर्म नरात्म्य की ओर हो गया। राग का प्रतिपक्ष यथार्थ-जान है । एक निमित्त का निवारण प्रतिपक्ष नियम से होता है [ माज्मम ११११६ ] । जब इष्ट संज्ञा का एकान्ततः प्रहाण होता है, तब राग का निरोध होता है । अतः जेरा, रोग और मरण का चिन्तन करना आवश्यक है, और यह जानना आवश्यक है कि महान् का उठाकर जो काम-सुख लब्ध होता है, यह क्षणिक है, और उसके लिए नरक का दुःख सहन करना होता है । यह तत्व मनस्कार है, किन्तु यह अपर्याप्त है । रग-रोग अधिकि- भनस्कार [भिधर्मकोश २३२५] का उत्पाद करता है । इसलिए, अब और अशुभ की भावना करने से स्त्री-संज्ञा का व्यावृत्ति होती है । इस रीति से योगी यह अवधारित करने लगता है कि सब दुःख है 'सर्व दुःखम्' यह एक दधि-विशेष से ही सत्य है । बौद्धो का यह विश्वास नहीं है कि संसार केवल दु.ग्व ही दुःख है । इसके प्रतिकूल वह मानते हैं कि इष्ट वस्तु मनोज्ञ है, और इसी- लिए प्रार्य उनको श्रमनोज के प्रकार में देखने के लिए प्रयाशील होते हैं। यह ठीक है कि मौत्रान्तिक और महामांधिक मानते है कि मन वेदना दुःख-स्वभाव है । अभिधर्मकोश ६।३];