पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३८१

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चतुर्दश अध्याय किन्तु इन्हीं बौद्धों का यह भी कहना है कि जो बुद्ध को एक पुष्प दान में देता है, वह इस दान के कारण कल्प भर स्वर्ग-सुख का भोग करता है, किन्तु वह कहते हैं कि यह सुखावेदना अार्यों को प्रतिकूल प्रतीत होती है। वह कहेंगे कि सांसारिक सुख यथार्थ मुग्न नहीं है, क्योंकि यह अनित्य है । इसी प्रकार वह कहेंगे कि 'श्रात्मा' मायोपम है। क्योंकि वह अहंकार और ममकार का प्रहाण करना चाहते हैं। अहंकार और ममत्र के विनष्ट होने पर योगी शान्त होता है। उसकी मचि निर्वाण में भी नहीं होती । "मैं विमुक्त और वीतराग हूँ। मैं विशुद्ध हूँ, किन्तु इस विशुद्धि में, इस विमुक्ति में, चाहे वह निर्वाण ही क्यों न हो, मेग अधिमोक्ष न होना चाहिये । वैमाषिक और सौचास्तिक मत पुसे के अनुसार प्रारंभ में बौद्ध-धर्म आत्मा, पुनर्जन्म और निर्माण में विश्वास करता था । वह दर्शन न था। पीछे से धर्म-नैरात्म्य की भावना और मदनमर्दन के लिए नैरात्म्य- वाद का प्रारंभ हुआ । इसके दो रूप हुर:-पुद्गलवाद और सन्ततिबाट; किन्तु पुनर्जन्म में जो विश्वास था वह नष्ट न हो सका । जो सन्ततिवाद के मानने वाले हैं, उनमें कोई निर्वाण को वस्तु-सत् गाते हैं, कोई निर्वाण को कैश और पुनर्भव का अभावमात्र मानते हैं । यह दूसरे सौत्रान्तिक और 'पुग्यसेलिया है। इनमें हम स्थावरों को भी ममिलित कर सकते हैं। पहली कोटि में विभज्यवादी, सर्वास्तिवादी और वैभाषिक हैं; अर्थात् प्राभिधार्मिक प्राय: पहले मत के हैं । 'पुब्बोलिया निर्वाण को वस्तु-सत् नहीं मानते (बुद्धघोष के अनुसार )। स्थविरों का भी मत है कि निर्वाण का अस्तित्व नहीं है । सौत्रान्तिकों का कहना है कि जो कुछ है, वह हेतु-प्रत्यय-जनित है; अर्थात् वह संस्कृत, प्रतीत्य-समुत्पन, हेतु-प्रभव है । संस्कृत संस्कार भी है । यह अन्य संस्कृतों का उत्पाद करता है । हेतु-फल-परंपरा के बाहर कुछ भी नहीं है । यह परंपरा प्रवृत्ति, संसार है । निर्वाण केवल क्लेश- जन्म का अभाव है; क्रश-कर्म-जन्मरूपी प्रवृत्ति की निवृत्तिमात्र है | एक शब्द में केवल संस्कृत का अस्तित्व है । वे असंस्कृत का प्रत्याख्यान नहीं करते, किन्तु वह कहते है कि यह कोई लोकोत्तर वस्तु-सन् नहीं है, यह अमभूत है, यथा-लोक में कहते हैं कि उत्पत्ति के पूर्व या निष्पत्ति के पश्चात् शब्द का अस्तित्व नहीं होता। ये एक सूत्र उद्धृत करते हैं, जिसे उनके प्रतिपक्षी प्रामाणिक नहीं मानतेः- अतीत और अनागत वस्तु, आकाश, पुद्गल और निर्वाण प्रञ्चतिमात्र हैं [अभिधर्मकोश, ४।२ । निर्वाण अभावमात्र, अप्रवृत्तिमात्र (अपवह) है । सूत्र में निर्दिष्ट लक्षण इस प्रकार है :-..सर्वथा प्रहाण, वैराग्य, विशुद्धि, क्षय, निरोध, दुःख का अत्यन्त श्रत्यय, अनुत्पाद, अनुपादान, अप्रादुर्भाव । यह शान्त, प्रणीत है, अर्थात् सर्वोपधि का प्रत्याख्यान, तृष्णा-क्षय, निर्वाण है [ संयुत्त १३।५; अभिधर्मकोश २, पृ. २८४ ] ! श्रागम के अनुसार निर्वाण तृतीय सत्य है। यह दुःख का निरोध, अर्थात् तुम्णा का चय, तृष्णा से वैराग्य, तृष्णा का प्रत्याख्यान, तृष्णा से विमुक्ति है। इसको अक्षरशः नहीं लेना चाहिये, क्योंकि ऐसे अनेक वचन है, जिनमें कहा है कि दुःख का निरोध जन्म, भव, स्कन्धों का निरोध है, क्योंकि दुःख का लक्षण तृष्णा नहीं है, क्योंकि तृष्णा दुःख का समुदय