पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३८३

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चतुर्दश अध्याय २६५ ग्रजर. भुव, अनिदर्शन, निष्प्रपंच, सत् , अमृत, प्रणीत, शिव, क्षेम, श्राश्चर्य, अमृत, निर्वाण, विराग, शुद्धि, मुक्ति, अनालय, द्वीप, लेण, वाण, परायण का निर्देश करूँगा। ३. निर्वाण, अमंस्कृत, अमृत, निरोध--इन शब्दों के आगे धातु शब्द जोड़ते हैं। सर्वास्तिबादी के लिए, विराग-धातु, प्रहाण-धातु, निरोध-धातु, निर्वाण को प्रजप्त करता है। यह श्रारख्या प्रार्य की अवस्था को प्रजन नहीं करती। जब हम कहते हैं कि यह अभिसमय तथा निर्वाण-प्रवण नहीं है, तब निर्वाण का अर्थ चिन की शान्ति होता है । 'निर्वाण-धातु केवल शाश्वत निर्वाग है ! बौद्धों के अनुसार केवल नीन धातु है ---कामधातु, रूप, प्रारूप्य । किन्तु इतिबुनक [५१] में भगवान की शिक्षा है कि तीन धातु रूप', अरूप , और निरोध-धानु है । निर्वागण को प्राय:-पट, शरण, पुर अबधारित करते हैं । आर्य निर्वाण में प्रवेश करता है (प्रविशति)। निर्वाण-धातु बहां आर्य का ह्रास या वृद्धि नहीं होती [अंगुत्तर ४१२०२] निर्वाण नामक भाजन है । अभिसमयालंकारालोक के अनुसार निर्वाण को धातु कहते हैं, क्योंकि यह पार्य-चित्त का बालबन है । आर्य विनश्वर अर्थों से अपने चित्त को व्यावृत्त करता है, और अमृता-धातु की भावना करता है । [अंगुत्तर ४।४२३ ] | निर्वाण का मुख्य भाकार निर्वाण का सबसे मुख्य प्राकार 'क्षय का है। वस्तुतः निर्वाण निरोध है। निर्वाण अप्रादुर्भाव है । यह तृष्णा- इन्य और दुःख-निरोध है । सर्वास्तिवादी उसे प्रतिसंख्या-निरोध कहते हैं। आर्य समाधि में इसका दर्शन करते हैं, किन्तु यदि तत्व का साक्षात्कार केवल समाधि की अवस्था में होता है, तो यह वाणी का विषय नहीं हो सकता ! शास्ता ने इसे मुख्यतः 'निरोध' व्याकृत किया है। यह द्रव्य है, कुशल है, नित्य है। इसे निरोध, विसंयोग कहते हैं। निरोध वस्तु-सत् है। इसी प्रकार मंडनमिश्र का कहना है कि अविद्या-निवृत्ति जो 'श्रभाव' है, विमुक्त अार्य में नित्य अवस्थान करती है । गाय-वैशेषिक इन विचारों से परिचित हैं। निरोध केवल एक प्राकार है । निर्वाण में अन्य प्राकार शान्त, प्रणीत, निःसरण है। निरोध द्रव्य है, अभाव नहीं है। इसमें नीचे दिए हुए हेतु बताए जाते हैं:- १. यदि यह अभावमात्र होता तो यह आर्य-सत्य कैसे होता है जिसकी सत्ता नहीं है, वह मन का विषय नहीं हो सकता। २. श्रभाव को तृतीय-सत्य कैसे अयधारित करते है ३. अभाव संस्कृत-असंस्कृत में अग्न कैसे होता है ४. यदि तृतीय श्रार्य-सत्य का विषय द्रज्य-सत् नहीं है, तो उसके उपदेश से क्या लाभ है। ५. यदि निरोध निवृत्तिमात्र है, तो उच्छेद-दृष्टि सम्यक्-दृष्टि होगी। यद्यपि रोग का अभाव अभावमात्र है, तथापि यह सद्भूत है; और इसे आरोग्य कहते हैं। दुल का अभाव सुख कहलाता है।