पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३८५

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२९७ चतुर्दश मयाब प्रारंभ में निर्वाण प्रात्मा के अमृतत्व में विश्वासमात्र था। उन्होंने मान लिया है कि बौद्ध धर्म का एक पूर्वरूप था, जो त्रिपिटिक के विचारों से सर्वथा भिन्न, कदाचित् उसके प्रतिकूल था। नास्तित्व, आत्म-प्रतिषेध, स्कन्धमात्र, निरोध, निराशावादिता आदि कदाचित् उसके लक्षण नथे । ऋद्धि-अभिना के अभ्यास से यह विश्वास उत्पन्न होता था कि आत्मा अमर है | किन्तु यदि सबसे प्राचीन साहित्य पीछे का है और कल्पित है, तो वह क्या है जिसका उपदेश बुद्ध ने किया था, और जिसका स्थान पश्चात् एक दूसरे बौद्ध-धर्म ने लिया ? इसका उत्तर पुसे यह देते हैं कि बुद्ध ने योग की शिक्षा दी थी, और वह योग इन्द्रजाल और लौकिक दि-प्रातिहार्य था। इस योग में ध्यान की क्रिया भी संमिलित थी। इसका यह अर्थ कि बुद्ध पातंजल योग के सदृश किसी दार्शनिक पद्धति के अनुयायी नये । वे केवल एक सामान्य चिकित्सक थे । पुसे कहते हैं कि जिस योग से बौद्ध-धर्म की उत्पत्ति हुई, उसमें श्राध्या- स्मिक प्रश्नों के विषय में विचार-विमर्श न था। यह एक प्रतिक्रियामात्र था, और उससे किसी नैतिक, धार्मिक या दार्शनिक दृष्टि से सरोकार न था | शरवास्की कहते हैं कि यह अयथार्थ है कि बौद्ध-योग ऋद्धि-प्रातिहार्य और इन्द्रजाल की विद्या है। इसके प्रतिकुल बह निश्चित ही एक दार्शनिक पद्धति है। योग समाधि या चित्त की एकाग्रता और पुनः पुनः निपेवगा है। ध्यान और समापत्ति का भी यही अर्थ है । इन सब व्याख्याओं का प्रयोग कर्म-साधन, करण-साधन, अधिकरण-साधन है। इस प्रकार योग और समाधि चित्त-विशेष की अवस्था के अर्थ में एकाग्र-चित्त है, या उस प्रकार के अर्थ में एकाग्र-चित्त है, जिससे यह अवस्था उत्पन्न हुई है। या उस स्थान के अर्थ में एकाग्र-चित्त है, जहाँ इस अवस्था का उसाद हुआ है। इस अन्तिम अर्थ में 'समापत्ति' शब्द का प्रयोग ध्यान-लोकों के लिए होता है, जहाँ के सत्य नित्य ध्यानावस्थित होते हैं । यह शब्द बालों भूमियों के लिए प्रयुक्त होता है। इस अर्थ में समापत्ति का विपक्ष काम-धातु है, जहाँ के सत्वों के चित्त असमाहित, विक्षिप्त होते हैं। समापत्ति का यह सामान्य अर्थ है। एक विशेष अर्थ में 'समापत्तिः अरूप-धातु की चार भूमियों के लिए प्रयुक्त होता है । उस अवस्था में यह चार ऊर्ध्व भूमि है । चार अधर भूमि चार ध्यान कहलाती है। 'समाधि' शब्द का भी सामान्य और विशेष अर्थ है। यह एक चैतसिक धर्म है, जिसके बल से चित्त समाहित होता है; या इसका अर्थ भाबित, विपुलीकृत एकाग्रता है । इस अवस्था में इसमें एक सामर्थ्य-विशेष उत्पन्न होता है, जो ध्यायी को ऊर्ध्व भूमियों में ले जाता है, और उसमें इन्द्रिय-संचार करता है । 'योगा सामान्यतः इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है। अलौकिक और अद्भुत शक्तियों को ऋद्धि कहते हैं, किन्तु जब योग से ऋद्धियों का उत्पाद इष्ट होता है, तब उपचार से योग शब्द का प्रयोग ऋद्धियों के लिए करते हैं । बौद्ध-योग का मौलिक विचार यह है कि समाधि से शमावस्था का उत्पाद होता है । ध्यायी पुद्गल क्रियाशील पुद्गल का विपक्ष है। जीवन का संस्कारों में विभजन इस दृष्टि से करते है, जिसमें उनका एक-एक करके उपशम और निरोध हो ।