पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३८६

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बौद्धमार्ग दर्शन पुद्गल वस्तुतः संस्कार-समूह और सन्तान है | श्रात्मा नाम का कोई पदार्थ नहीं है। यह अनात्मा है । इसका यह अर्थ है कि जिस प्रकार शरीर परमाणु संचितरूप है उसी प्रकार पुद्गल का श्ररूपी अंश धर्ममय है। ये धर्म एक दूसरे से पृथक् है । तथापि हेतु-प्रत्यय-वश ये धर्म अन्योन्य संबद्ध हैं। इनमें से कुछ सदा सहोत्पन्न ( सहभू) है, या ये उत्तरोत्तर क्षण में एक दूसरे के अनुगत है। तब ये नियन्द-फल है, क्षण सन्तान हैं। हेतु-प्रत्यय का नियम प्रतीत्यसमुत्पाद कहलाता है। किसी पुद्गल-सन्तान के शरीर-क्षण में अरूपी धर्मों की संख्या क्षण-क्षण पर बदलती रहती है। इनकी बहुसंख्या हो सकती है, क्योंकि प्रसुप्त धर्मों को भी वर्तमान अवधारित करते हैं। सौत्रान्तिक उपहास करते हैं, और कहते हैं कि एक क्षण में इतने पृथक् धर्मों का सहभाव कैसे हो सकता है । किन्तु इनमें से कुछ प्रतिक्षण रहते हैं, और कुछ अवस्था-विशेष में ही प्रादुर्भूत होते हैं। दस प्रकार के धर्म सदा रहते हैं । इन्हें चित्त-महाभूमिक कहते हैं । इनमें से समाधि या योग भी है। इनके अतिरिक्त कुछ कुशल- धर्म या अकुशल-धर्म भी होते हैं । एक क्षण के धर्मों की संख्या हो भिन्न नहीं होती, इनका उत्कर्ष-भेद भी होता है । किसी पुद्गल में क्षण-विशेष में एक धर्म का उत्कर्ष होता है । किसी में किसी दूसरे धर्म का। इन दस महाभूमिकों में दो का विशेष माहात्म्य है । जब इनका प्रकर्ष होता है, तो यह उत्कृष्ट होते हैं। यह प्रज्ञा या समाधि है । ऐसा भी है कि इन धर्मों का विकास और उत्कर्ष न हो । तव प्रजा को मिति' कहते हैं, किन्तु धर्म वही है । जब इसका पूर्ण विकास होता है, तब यह अमला-प्रज्ञा होती है । पृथग्जन विद्या से प्रभावित होता है । अविद्या प्रज्ञा का विपर्यय है, अभावमात्र नहीं है । यह एक पृथन्धर्म है, किन्तु इसका निस्य अवस्थान नहीं है । यह प्रहीण हो सकता है, और चित्त-सन्तान से अपगत हो सकता है। सन्तान में कुशल और अकुशल धर्मों के बीच जो संघर्ष होता है, यह नैतिक उन्नति है। धर्म पृथग्भूत और क्षणिक हैं। इसलि. घे एक दूसर को प्रभावित नहीं कर सकते तथापि अविद्यादि धर्मों के विद्यमान होने से सकल सन्तान दूषित होता है । उस अवस्था में सर्व धर्म सासव होते हैं; विशान भी लिष्ट हो जाता है। इसको समझाने के लिए एक सर्वत्रग हेतु की कल्पना की जाती है। बौद्धों का कहना है कि अन्त में कुशल वर्मा की विजय होगी। लेश दो प्रकार के है-दर्शनहेय और भावनाहेय । यदि समाधि का विपुल भावना हो तो इसका विशेष सामर्थ्य होता है। तब समाधि का संस्कार-समूह में प्राधान्य होता है। तब यह जीवन की गति को रोक सकता है । श्रार्य-मार्ग में यह अन्तिम कदम है । यह पुद्गल की अोपपत्ति भी कर सकता है। वह तब अच्छे, भास्वर लोक में, रूप-धातु में अथवा अरूप-धातु में उत्पन्न होता है । इस दृष्टि से भव त्रैधातुक है । एक दूसरी दृष्टि से दो भेद है :-समापत्ति और काम-धातु ! काम-धातु में नरक, पृथ्वी लोक और अधर देव-लोक संग्रहीत हैं । काम-धातु के देवों में १८ धातु हैं । इनमें से एक योग द्वारा निरुद्ध नहीं हुआ है । यह कामभुक् है । इनमें सबसे ऊर्व पर-निर्मित- यशवर्ती है।