पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३८७

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चतुर्दश अध्याय २६३ समापत्ति-लोक के दो विभाग करते हैं--१. रूप-लोक, जहाँ के सत्वों के शरीर अच्छे होते हैं; २. श्ररूप-लोक, जहाँ रूप का अभाव होता है। यहाँ समाधीन्द्रिय का प्राधान्य होता है, अन्य धर्म अनुचर होते हैं । इन लोगों की कल्पना समापत्ति के अनुसार होती हैं । श्ररूप- धातु चार है। इनके सत्व किमी एक भावविशेष में ममापन्न होते है,यथा-अनन्त अाकाश, अनन्त विज्ञान, आकिंचन्य, नैवसंज्ञानासंजा। इस अवस्था में विज्ञान का सर्वथा निरोध होता है। ध्यान-लोक भी चार हैं । यह चार ध्यानी के अनुरूप हैं । ध्यान-लोक में चार धातु ---गन्ध-रम पाण-विज्ञान, जिह्वा-विज्ञान नहीं होते । इन सत्रों को कबड़ीकार श्राहार की अावश्यकता नहीं है। किन्तु घ्राणेन्द्रिय और जिहेन्द्रिय का अभाव नहीं होता, क्योंकि उनके प्रभाव से शरीर की कुरूपता होती है । सब सकलेन्द्रिय, अविही- नेन्द्रिय होते हैं । वह दिव्य चतु और दिश्य श्रोत्र से समन्वागत होते हैं । उनकी काय-प्रब्धि होती है। उनको बत्र की आवश्यकता नहीं है, किन्तु वह सबस्त्र उपपन्न होते हैं। उनके लिए विमान बने बनाये होते हैं । ये पुरुषन्द्रिय, त्रीन्द्रिय से समन्वागत नहीं होते । सब देव उपपादुक हैं। मातृकुति से इनका जन्म नहीं होता। इनमें प्रतिव नहीं होता । ब्रश का अभाव होने से चेतना का अभाव होता है। प्रश्न है कि क्या इन अलौकिक शक्तियों से वहीं योगी संपन्न हो सकता है, जो इन ऊर्ध्व लोकों में उपपन्न होता है; अथवा भूलोक में भी इनकी प्राप्ति हो सकता है । योग की यह प्रक्रिया हीनयान के अनुसार है। एकाग्रचित्त करने के लिए, जो साधन बताये गए हैं, यह सब दर्शनों में सामान्य है । पातंजल-दर्शन में सांख्य के सिद्धान्तों के अनुसार इनका निरूपण किया गया है। हानयान में बहुधर्मवाद के अनुसार निरूपण किया गया है। निर्वाण के लाभ के लिए. इन विविध धमों का प्रश्चिय होता है । निर्वाण सबसे पर है। यह जीवन का पर्यन्त है, जहां विज्ञान का सर्वथा निरोध है । श्रार्य-मार्ग के अन्तर्गत दृष्टि-मार्ग है। यह चतुः-सत्य-दर्शन है। चार सत्यों का विनि- श्चय पहले प्रमाण से कर पश्चात् उनका साक्षात्कार करते हैं। यह योगी-प्रत्यक्ष है । हीनयान के अनुसार सोलह क्षण में यह सल्याभिसमय होता है। अभिसमय का क्रम द्विविध है :--पहले धर्म-क्षान्ति ( रुनि ) होती हैं, पीछे धर्मों का प्रत्यन्त-ज्ञान (धर्म-ज्ञान ) होता है । यह ज्ञान काम-धातु के धर्मों के संबन्ध में होता है । पश्चात् यह ऊर्ध्व ध्यान-लोकों के संबन्ध में होता है । यह अन्वयशान कहलाता है। अत: यह स्पष्ट है कि बौद्ध-योग इन्द्रजाल की विद्या नहीं है। वस्तुत बुद्ध ने इन्द्रजाल तथा योग के उन अभ्यासों का, जो निर्याण-प्रवण नहीं है, प्रतिषेध किया है। योग बौद्ध-धर्म की कोई विशेरता नहीं है । लोकायत और मीमांसकों को छोड़कर अन्य सब योग की शिक्षा देते हैं। जैन और नैयायिक भी योगाभ्यास की नितान्त आवश्यकता मानते हैं।