पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३८९

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चतुर्दश भन्याय ३०१ करते । पीछे चलकर सौत्रान्तिक महायानवादियों से मिल गये, और उन्होंने योगाचार-सौत्रान्तिक निकाय की प्रतिष्ठा की । सौत्रान्तिकों ने निर्वाण (निरोध ) को प्रशमि-सत् माना । वैभाषिक और मौत्रान्तिकों में निर्वाण के स्वभाव के संबन्ध में बहुत पहले वाद- विवाद होता था। वैभाषिक निर्वाण को वस्तु मानते थे, किन्तु सौत्रान्तिकों का कहना था कि निर्वाण अभावमात्र है। जहाँ वैभाषिकों का साहित्य उपलब्ध है, और इसलिए हम वस्तु के पक्ष में उनकी युक्तियां जानते हैं; वहाँ सौत्रान्तिकों के प्राचार्य कुमारलाम, श्रीलाम, महाभदन्त, वसुमित्र आदि के ग्रन्थ अप्राप्य है । जब वैभाषिक कहते हैं कि निर्वाण वस्तु सत् है, तब उनका यह अर्थ कदापि नहीं है कि निर्वाण एक प्रकार का स्वर्ग है । 'वस्तु' कहने से उनका श्राशय इतना ही है कि यह अचैतन्य की सदवस्या है। दूसरी ओर सौत्रान्तिक निर्वाण को एक पृथक् धर्म अवधारित नहीं करते; वे इसका प्रतिषेध करते हैं कि निर्वाण वस्तु-सत् है । मौत्रान्तिक महायानयादियों की तरह बुद्ध का धर्मकाय मानते है। दर्शन दो प्रकार के हैं---बहुधर्मवादी ('ल्यूर लिस्टिक ) और विज्ञानवादी (श्राइडिय- लिस्टिक)। यह दो प्रकार सत्र दर्शन पाए जाते हैं। सर्वास्तिवादी, वैमायिक तथा न्याय-वैशेषिक निर्वाण या मोक्ष को अचेतन वस्तु-सन् मानते हैं । ( यस्मिन् सति चेतसो विमोक्षः)। यह जड़ावस्था है। वैभाषिक अनात्मवादी हैं, और उनकी दृष्टि में बुद्ध मनुष्य-लोक के थे। सौत्रान्तिक और महायानवादी इस अचेतन वस्तु को नहीं मानते। सौत्रान्तिक-मतवाद और महायान में बुद्ध का धर्मकाय माना गया है, और वह लोकोत्तर है। वैभाषिक तथा पूर्वनिकाय संसार और निर्वाण दोनों को वस्तु-सत् मानते हैं । माध्य- मिकों के अनुसार संसार और निर्याण पृथक् पृथक् अवस्तु हैं । सौत्रान्तिकों के अनुसार संसार वस्तु-सत् है, और निर्वाण एक पृथक् धर्म नहीं है। योगाचार या विज्ञानवाद के अनुसार संसार अवस्तु है, और निर्वाण वस्तु-सत् है। वैमाषिक-वैभाषिक दो प्रकार के धर्म मानते हैं - संस्कृत और असंस्कृत । रूप, मन, और संस्कार संस्कृत है । अाकाश और निर्वाण संस्कृत हैं । संस्कृत-धर्म अतीत, वर्तमान और भविष्य अर्थात् त्रयविक है। ये सब वस्तु-सत् है। अतीत और भविष्य उसी प्रकार वस्तु-सत् है, जैसे वर्तमान | इस प्रकार धर्म दो प्रकार के है-धर्म-स्वभाव और धर्म-लक्षण । अब संस्कार शान्त हो जाते हैं, जब सर्व प्रादुर्भाव निरुद्ध हो जाते हैं, तब अचेतन वस्तु रह जाती है। यह एक पृथक् धर्म, एक वस्तु है । यह अचेतन है। यह सांख्यों के अव्यक्त, प्रधान के तुल्य है । यह अवाच्य है---निःसत्तासत्तं निःसदसद् निरसद् अध्यक्तमलिङ्गं प्रधानम् [ योगसूत्र २२१६ पर भ्यासभाष्य ] | चन्द्रकीर्ति वैभाषिक मत के संबन्ध में कहते हैं कि-"यदि निर्वाण भाव है, तो यह निरोधमात्र नहीं हो सकता । वस्तुतः यह कहा गया है कि निर्वाण में चेतस का विमोक्ष है, यथा-इन्धन के न होने पर अग्नि का निर्यापन होता है। किन्तु हमारे मत में चित्त- विमोक्ष या निरोध भाव नहीं है ।" वैभाषिक उत्तर देते हैं :-निर्वाण से लश-जन्म का निरोध, निवृत्ति न समझना चाहिये, किन्तु यों कहना चाहिये कि निर्वाण नाम का धर्म एक वस्त है,