पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बौद्ध धर्म दर्शन जिसमें जैश-जन्म का निरोध होता है। अग्नि का निरोध दृष्टान्तमात्र है, और इसकी व्याख्या यह होनी चाहिये कि यह उस अचेतन वस्तु को निर्दिष्ट करता है, जो अवशिष्ट रह जाता है, जब कि चित्त का विक्षोभ होता है। सौत्रान्तिक-सौत्रान्तिक अतीत और अनामत को भाव नहीं मानते। वे दो प्रकार के धर्म नहीं मानते। वे केवल धर्म-लक्षण मानते हैं । निर्वाण संश-जन्म का क्षय है। कोई अचे- तन धर्म अवशिष्ट नहीं रहता । सौत्रान्तिक श्रालय विज्ञान के सिद्धान्त को नहीं मानते, और न शून्यवाद मानते हैं। सौत्रान्तिक बाह्य जगत् को मायावत् नहीं मानते। वे बुद्ध का धर्मकाय मानते हैं, और यह नहीं मानते कि भगवान् के परिनिर्वामा का अर्थ अचेतन निर्माण में सर्वथा निरोध है। योगाचार-अश्वघोष, पार्यासंग और दिङ्नाग इस वाद श्राचार्य हैं। ये सब महायानवादी हैं, और बुद्ध के धर्मकाय में विश्वास रखते हैं । ये नित्त-विज्ञान के अतिरिक्त एक प्रालय-विज्ञान मानते हैं; और बाह्य जगत् को अाभासमात्र मानते हैं; उसे वस्तु-मत् नहीं मानते। हीनयान के विविध धर्मों के स्थान में यह विज्ञानमात्र मानते हैं । अश्वघोग एक श्रालय-विज्ञान मानते हैं । योगाचार के दो निकाय है --- १. ग्रासिंग का; २. दिङ्नाग का। श्रालय-विधान बीजों का संग्रह करता है। यह बीजों से उचित होता है। ये बीज विविध धर्मों को, अर्थात् सात विज्ञानों को अंकित करते हैं। प्रालय-विज्ञान क्षेत्र का प्राश्रय है । शुभ और अशुभ कर्मों का विपाक-फल जो संसार का क्षेत्र करता है, बालब-विज्ञान से संगृहीत होता है। श्रालय-विज्ञान को मूल-विज्ञान, भवांग-विज्ञान भी कहते हैं। आलय-विज्ञान का स्वभाव सूक्ष्म है, और वह केवल अपने ममुदाचार, अपने परिणाम में जाना जाता है । जितने प्रवृत्ति-विज्ञान है, वे अालय के 'परिणाम' है; क्योंकि अालय-विज्ञान मब धर्मों का समाश्रय है। यह अनादिकालिक है। इस विज्ञान के होने पर सब गतियों का, और निर्वाण का अधिगम होता है। प्रत्ययों से तुब्ध होकर यह तरंगों के समान प्रवृत्ति-विज्ञान उत्पन्न करता है, किन्तु नदी के समान स्वयं सदा अविच्छिन्न रहता है । सग्ल्यों का प्रधान बो महत् अादि में परिणत होता है, श्रालय-विज्ञान के सदृश प्रतीत होता है । विज्ञानवादी इसको स्वीकार नहीं करते । शस्खास्की कहते हैं कि यह प्रच्छन्न रूप से चित्त-प्रवाह के बाद के स्थान में श्रामवाद को प्रतिष्टित करना है । चित्त-प्रवाह में पूर्वान्चत्त-क्षण परिचित्त-क्षण का समनन्तर प्रत्यय है। इस संवन्ध का स्थान प्रालय और उसके परिणाम लेते हैं। सांख्य की प्रक्रिया में प्रधान और उसके परिणाम बस्तु-सत् हैं। योगाचार दोनों को अवस्तु समझता है। अपने पूर्ववर्ती माध्यमिकों से उन्होंने सर्व धर्म की शल्यता, निःस्वभावता ली। पृथक् पृथक् धर्म शून्य थे, क्योंकि वे परिकल्पित थे। यह उनकी लक्षण-निःस्वभावता कहलाती थी, क्योंकि वे प्रतीत्य-समुत्पाद के अधीन थे, इसलिए, वे परतंत्र थे और इस अर्थ में वह वस्तु-सत् ये। यह उनकी उत्पत्ति-निःस्वभावता कहलाती थी । जहाँ तक वे तथता- धर्मता ( एसोल्यूट ) में परिनिष्पन्न थे, वहाँ तक उनकी परमार्थ-निःस्वभावता थी। इस प्रकार