पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३९१

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चतुर्दश अध्याय तथता त्रैधानुक से न अन्य है, न अनन्य । पृथक् पृथक् धर्मों के समुदाय के रूप में यह अन्य है, किन्तु सर्व की इकाई के रूप में यह अनन्य है। यह ग्राह्य-ग्राहक रहित चित्त-धर्मता है। यह धर्म-धातु है, और इसलिए यह बुद्ध के धर्मकाय से अभिन्न है। योगी को समाधि में इस अद्वय-लक्षण के विमिमात्र का प्रत्य न होता है। अमंग का मत था कि सर्व विज्ञप्ति. मात्रक है । 'सर्व' से अभिप्राय धानुक और असंस्कृत दोनों से है [त्रिंशिका, १७ पर स्थिर- मति ] 1 इस दृष्टि के कारण निर्वाण का बाद बिलकुल बदल गया। हीनयान में, जहाँ संसार और निर्वाण दोनों बस्तु-सन हैं, योग द्वारा भय की प्रवृत्ति का निरोध, और निर्वाण में प्रवेश होता है । महायान की दृष्टि में तथता में संसार पसिनष्पन है, अतः संस्कृत धर्मों को असंस्कृत धर्मों में परिवर्तित नहीं करना पड़ता । योगी को समाधि में तथता का प्रत्यक्ष करना पड़ता है। योगी के लिए संसार का श्राकार ही बदल जाता है। प्रत्येक धर्म पृथक पृथक् असत्-कल्प है, किन्तु तथता में वस्तु-सत् है। उसके लिए सबै धर्म निर शान्त हैं । उनको नित्य बनना नहीं है। हीनयान के अनुसार यह धर्म निर्वाण में ही शान्त और निम होते हैं। योगाचार का कहना है कि यदि ये धर्म वस्तु-सन् है, तो सर्वथा निरुद्ध नहीं हो सकते । अतः वे श्रादि-शान्त है। नागार्जुन कहते हैं कि जो प्रत्ययवश होता है, वह स्वभाव से ही शान्त है। माध्यमिक-हीनयान बहुधर्मवादी हैं । कोई अात्मा नहीं है, पंच-स्कन्ध-मात्र है। धर्म वस्तु-सत् है । किन्तु सत्व, जीव, पुद्गल, प्राप्त-सत् हैं। अात्मा के स्थान में विज्ञान-क्षणों का अविच्छिन्न प्रवाह है । वेदना, संज्ञा और संस्कार के क्षण इसके सहगत हैं। इसी प्रकार रूप भी है । द्रव्य, गुण और क्रिया को यह पदार्थ नहीं मानते। इनके धर्म प्रतीत्यसमुत्साद के नय के अनुसार प्रादुर्भूत और तिरोहित होते हैं । एक से दूसरे की उनि नहीं होती। इसके होने पर वह होता है। इन क्षणिक संस्कृत धर्मों के अतिरिक्त हीनयान में अाकाश और निर्वाण असंस्कृत धर्म भी हैं । जो संस्कार संसार में प्रवृत्त थे, वह निर्वाण में निरुद्ध होते हैं, अतः संसार और निर्वाण दोनों वन्तु-सत् है । दोनों मिलकर 'सर्व हैं, किन्तु 'सर्व' प्रति-सत् है । माध्यमिक-नय में वस्तु-सत् की भिन्न फल्पना है। जो अकृतक (= असंस्कृत ) है, जो परत्र निरपेक्ष है, जिसका अपना स्वभाव है, वह वस्तु-सत् है । हीनयान में संस्कृत धर्म वस्तु-सत् हैं। महायान में धर्म संस्कृत होने के कारण, परापेक्ष होने के कारण, शून्य, स्वभाव-मृत्य हैं। हीनयान में राशि, अवयवी, प्रज्ञप्तिसत् है; और केवल धम वस्तु है । महायान में धर्म शून्य है, और केवल धर्मतः (=धर्मकाय ) बस्तुसत् है । यह धर्मता राशियों का सर्व है। 'तत्व' का व्याख्यान इस प्रकार है-यह शान्त, अद्वय, अवाच्य, विकल्पातीत, निष्प्रपंच है। जो परतंत्र है, वह वस्तु नहीं है । हीनयान में पुद्गल, आत्मा स्कन्ध-अायतन- धातुमात्र है। पुद्गल-नैरात्म्य है। केवल संस्कार-समूह है। महायान में इसके विपरीत, धर्मों का नैरात्म्य है, और धर्मकाय है । हीनयान में बहुधर्मवाद है । महायान अद्वयवाद है ।'