पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

महायान में प्रतीत्य-समुत्पाद का एक नया अर्थ है। जो निरपेक्ष है वही वस्तु है, बो परापेक्ष है वह वस्तु नहीं है। हीनयान में धर्मों को संस्कृत-असंस्कृत में विभक्त किया है। और दोनों वस्तु-सत् हैं । किन्तु महायान में इनमें कोई भी वस्तु-सत् नहीं है, और दोनों शून्यता के अधीन हैं। हीनयान का मुख्य विचार बहुधर्मवाद है; महायान का मुख्य विचार धर्मों की शून्यता है । 'शून्यता का अर्थ स्वभाव-शून्य है । जब एक धर्म का दूसरे से संबन्ध बताया जाता है, तभी वह जाना जाता है। अन्यथा वह निरर्थक हो जाता है। इसलिए, 'शून्यता प्रतीत्य- समुत्पाद का समानार्थवाची है । केवल सर्व वस्तु-सत् है, किन्तु यह सर्व निष्प्रपंच है। 'शून्यता' अभावमात्र नहीं है । जो ऐसा समझते हैं, वह शून्यता के प्रयोजन को नहीं जानते । माध्यमिक प्रतीत्यसमुत्पाद-बादी है, नास्तिक नहीं है। जो प्रत्यय के अधीन है, वह 'शून्य' कहलाता है। 'शून्य' अप्रतीत्य-समुत्पन्न है । निरवशेष प्रपंच के उपशम के लिए, 'शून्यता का उपदेश है । नागार्जुन हीनयान के परिनिर्वृत तथागत का प्रतिषेध करते हैं, जो नित्य अचेतन वस्तु है । स्वभावतः तथागत नहीं है । तथागत अपने या स्कन्धों के अस्तित्व को प्रशस नहीं करते । किन्तु इस प्रतिषेध का यह अर्थ नहीं है कि मोक्ष की कोई श्राशा नहीं है। क्योंकि निष्प्रपंच तथागत का प्रतिषेध नहीं है । बुद्ध के लिए कोई आरोपित व्यवहार नहीं है । यदि अविपरीतार्थ कहना हो तो हम कुछ नहीं कह सकते । शून्य भी व्यवहार के लिए कहते हैं। बुद्ध का साक्षात्कार योगी को प्रातिम ज्ञान द्वारा होता है। बुद्ध को धर्मतः देखना चाहिये । धर्मता उनकी काय है। धर्मता का स्वभाव अवाच्य है। धर्मता से व्यतिरिक्त संसार नहीं है, सब धर्म प्रज्ञा-पारमिता से परिशुद्ध हो प्रभास्वर होते हैं । बुद्ध-काय भूतकोटि में आविर्भत होता है। निर्वाण का नया स्वरूप सर्वास्तिवाद और वैभाषिक-नय में श्राकाश और निर्वाण धर्म थे, क्योंकि वह वस्तु, भाव थे; उनका स्वलक्षण था। सौत्रान्तिक उनको धर्म नहीं मानते थे, क्योंकि उनके मन में इनका कोई पृथक् स्वभाव नहीं था। माध्यमिक भी इनको धर्म नहीं मानते थे, क्योंकि उनके मत में जो दूसरे की अपेक्षा नही करता वही स्वभाव है (अनपेक्षा स्वभावः) । शून्यता के अन्तर्गत वैमाषिकों के सब संस्कृत और असंस्कृत धर्म है । उस नवीन सिद्धान्त को स्वीकार करने से बौद्ध- धर्म में मौलिक परिवर्तन हुअा, और उसका अाधार ही बदल गया । हीनयानवादियों के निर्वाण की कल्पना, उनका बुद्ध, उनकी नैतिकता, वस्तु-सत् और प्रतीत्यसमुत्पाद संबन्धी उनके विचार, रूप, चित्त-चैत तथा संस्कार के वस्तुत्व का सिद्धान्त सब प्रसिद्ध हो जाते हैं। नागार्जुन बहुधर्म को प्रसिद्ध ठहराते हैं, और शून्यता की प्रशंसा करते हैं। इस प्रकार वह अनिर्वचनीय, अद्वय, 'धर्माणां धर्मता' की प्रतिष्ठा करते हैं । इसे इदन्ता, इदंप्रत्यता, तथता, भूत-तथता, तथागत-गर्भ और धर्मकाय कहते हैं । तथागत और निर्वाण एक ही है। मदि संसार वस्तु-सत् नहीं है, यदि सर्व शून्य है, किसी का उदय-व्यय नहीं होता, तो किसका निर्वाण इष्ट है। यह समझना कि निर्वाण के पूर्व संसार विद्यमान था, और उसके परिक्षय से निर्वाण पश्चता