पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३९३

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श्रन्त में चतुर्दश अध्याय होगा, मूग्राह है। निर्वाण के पूर्व जो स्वभाव से विद्यमान थे, उनका प्रभाव करना शक्य नहीं है। अतः इस कल्पना का परित्याग करना चाहिये । चाहे हम वैभाषिक-मत ले (जिसके अनुसार निर्वाण-धर्म में सदा के लिए विज्ञान का निरोध होता है ), अथवा सौत्रान्तिक-मत लें ( जिसके अनुसार निर्वाण क्लेश-जन्म का अभावमात्र है ); दोनों अवस्थाओं में यह कल्पना है कि निर्वाण के पूर्व कोई वस्तु-मन् विद्यमान है, जो पश्चात् निरुद्ध होता है। इससे निर्वाण केवल शून्य ही नहीं है, किन्तु संस्कृत है। माध्यमिकों के अनुसार निर्वाण और संसार में सूक्ष्म- मात्र अन्तर नहीं है। हेतु-प्रत्यय-सामग्री का श्राश्रय लेकर जो जन्म-मरण-प्रबन्ध व्यवस्थापित होता है, वही, जब हेतु-प्रत्यय की उपेक्षा होती है, निर्वाण व्यवस्थापित होता है। शन्यता के मंबन्ध में नागार्जुन कहते हैं कि यदि कोई अशुन्य हो तभी कोई शून्य हो सकता है। किन्तु कोई अशून्य नहीं है, तब शून्य कैसे होगा ? इसका यह अर्थ नहीं है कि शून्यता का प्रतिषेध होना चाहिये। सर्व दृष्टियों की शून्यता से ही उनका होता है, सकल कल्पना की व्यावृनि होती है। किन्तु यदि शून्यता में भावाभिनिवेश हो, तो किस प्रकार इस अभिनिवेश का निषेध हो । तथागत कहते हैं कि जिसकी दृष्टि शून्यता की है वह अचिकित्स्य है। माय-वैशेषिक मत- केवल हीनयान में ही निर्वाण को अचैतन्य नहीं माना है, न्याय- वैशेषिक मत में भी मोद (अपवर्ग, निःश्रेयम् ) अचैतन्य, सर्व सुग्वोच्छेद है [१।१।२ पर वात्स्या- यनभाष्य ] । वात्स्यायन प्रश्न करते हैं कि कौन बुद्धिमान् इस अपवर्ग को पसन्द करेगा जिसमें सर्व सुख का उच्छेद है, जो अचैतन्य है,जिसमें सबसे विप्रयोग है, और सर्व कार्य का उपरम है । वह स्वयं उत्तर देते हैं :- यह अपवर्ग शान्त है, यहाँ सर्व दुःख का उच्छेद है, सर्व दु.ख की असं- वित्ति है । कौन ऐसा बुद्धिमान् है, जो इसके लिये रुचि न उत्पन्न करे । जिस प्रकार विष-संपृक्त अन्न अनादेय है, उसी प्रकार दुःखानुपक्त सुख अनादेव है । जयन्त न्यायमंजरी में प्रश्न करते हैं:-क्या यह संभव है कि बुद्धिमान् पापाण-निर्विशेष की अवस्था के अधिगम के लिए पुरुषार्थ करे । और वे भी वही उत्तर देते हैं जो वात्स्यायन का है। वैशेषिक में मी मोक्ष सर्वोपरम है । न्यायकंदली में प्रश्नकर्ता कहता है कि यदि यह अवस्था शिला-शनल के तुल्य है, जड़ है, तो मोक्ष (निर्वाण) के लिये कोई बुद्धिमान् पुरुष यत्नशील न होगा । ग्रन्थकार उत्तर देता है कि बुद्धिमान् केवल सुख के लिए यत्नवान् नहीं होता। अनुभव बताता है कि वह दुःख-निवृत्ति के लिए भी पुरुषार्थ करता है। न्याय-वैशेषिक में संसार को दुःख कहा है। वात्स्यायन कहते हैं कि दुःख जन्म है । यह केवल मुख्य दुःख नहीं है, किन्तु उसका साधन भी दुःख है । यही पंच उपादान-स्कन्ध है । यही सास्तव-धर्म है। इनके प्रतिपक्ष प्रज्ञा और समाधि है । वात्स्यायनभाष्य में प्रशा को 'धर्म-प्रविवेकः ( = धर्म-प्रविचय ) कहा है । मोक्ष को न्याय में 'अमृत्यु-पद' कहा है । वैशेषिक के अनुसार स्वरूपावस्था में अात्मा में न चैतन्य है, न वेदना । शरवास्कीका निष्कर्ष-इस विस्तृत विवेचन के अनन्तर शरवात्स्की निम्न निष्कर्ष निकालते है:- १. छठी शताब्दी ( ईसा से पूर्व) में दार्शनिक विचार-विमर्श की प्रचुरता थी, और बेश-कर्म-जन्म के निरोध के मार्ग उत्सुकता से हूँढ़े जाते थे। इनमें से अनेक मोक्ष (निर्वाण)