पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३९४

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पौर-पापन को अचैतन्यावस्था मानते थे, और उसको अमृत्यु-पद कहते थे । बुद्ध ने नित्य अात्मा का प्रतिषेध किया था, और 'सर्व को संस्कृत-असंस्कृत धर्मों में विभक्त किया था। इन संस्कृत- धर्मों का निर्वाण में नियत-विरोध होता था। २. कई निकाय इस मत के थे। किन्तु धीरे-धीरे बुद्ध को लोकोत्तर बना दिया, और इस कारण शासन में भेद हुअा। ३. पहली शताब्दी में अद्वयवाद की प्रतिष्ठा हुई और बुद्ध की पूजा धर्म-काय के रूप में होने लगी। ४. महासांधिक, वात्सीपुत्रीय तथा कतिपय अन्य निकायों में यह मतबाद प्रचलित था कि निर्वाण की अवस्था में एक प्रकार का चैतन्य रह जाता है । ५. इनके अनन्तर सौत्रान्तिक आये, जिन्होंने धर्मों की संख्या को घटाया, कई धर्मों को प्रज्ञप्तिमात्र टहराया । यहाँ तक कि निर्वाण को भी अभावमात्र माना, और उसको एक पृथक्-धर्म नहीं अबधारित किया । सौत्रान्तिक बुद्ध का धर्मकाय मानते थे। ६. नया दर्शन अद्वयबादी हो गया । इसने बहुधर्मवाट का प्रतिपेध किया । ७. तव इसके दो रूप हो गए । एक ने श्रालय विज्ञान नामक बाट विज्ञान की कल्पना की, जिसके अन्य विज्ञान परिणाम हैं । ये बाह्य-जगत् को मिथ्या और केवल विज्ञान को वस्तु-सत् मानते थे। इनको नित्तमात्रवादी कहते थे। दूसरे बहुधर्म की सत्ता नहीं मानते थे। वह केवल 'सर्व' को वस्तु-सत् मानते थे, जिसका साक्षात्कार योगी को ही होता था । इनके अनुसार तत्त्व का साक्षात्कार तर्क और युक्ति से नहीं होता। ८. पांचवीं शताब्दी में सौत्रान्तिका योगाचार से मिल गए। इनके अनुसार निर्वाण में ग्राह्य-ग्राहकभाव नहीं है। शस्वास्की का ग्रन्थ सन् १९२७ में प्रकाशित हुया था । इधर कई विद्वानों ने इस विषय पर विचार किया है, और इनमें से कुछ पुर्मे के इस विचार से सहमत हैं कि बौद्ध-धर्म का एक पूर्वरूप था, जो निर्वाण को सर्वास्तिवाद की तरह अचेतन अवस्था नहीं मानता था, किन्तु उसके अनुसार यह अमृत-पद चैतन्य की शाश्वत अवस्था थी। हम शरवान्स्की के मत से सहमत हैं, क्योंकि हमारी समझ में नहीं अासा कि जब बौद्ध-धर्म अपने इतने लंबे इतिहास में निरन्तर पुद्गल-नराम्य और अनात्मवाद की शिक्षा देता रहा, तो यह कैसे माना जा सकता है कि भगवान् बुद्ध ने निवारण की अवस्था को चैतन्य की शाश्वत अवस्था बताया था। हम ऊपर देख चुके हैं कि सौत्रान्तिक, जो सूत्रान्तों को ही प्रमाण मानते हैं, निर्वाण को वस्तु-सत् नहीं मानते, किन्तु उसे अभावमात्र टहराते हैं । यह सत्य है कि सूत्रान्तों में कुछ ऐसे वाक्य आये है, जिनमें निर्वाण के लिए. अजर, अमृत श्रादि श्राख्याओं का प्रयोग किया गया है; मुख्यतः इन्हीं वाक्यों के अाधार पर ये विद्वान् ऐसी कल्पना करते हैं। किन्तु जैसा कि शरवारकी ने न्याय वैशेषिक शास्त्रों से उद्धरण देकर