पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३९६

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पौर-धर्म-दर्शन आधार सब बीवों में पाया बाता है। यह अाधार बुद्ध-धात है । इसे तथागत-गर्भ, बुद्ध-बीच या बुद्ध-गोत्र भी कहते हैं। इस बीज का धर्म-धातु से तादात्म्य है। अभिसमयालंकार के अनुसार धर्म-धात में कोई भेद नहीं है, अतः गोत्र-भेद भी युक्त नहीं है। इसके अनुसार हीनयान केवल संवृतितः है; वस्तुतः अन्त में सबका पर्यवसान महायान में होता है । सब जीवों के लिए बुद्धत्व संभव है । क्योंकि सब बुद्ध-गोत्र से व्याप्त है। इस साधना में योगी धर्म धातु का प्रत्यात्म में संवदेन करता है । यह विचार वेदान्त से मिलता है, जिसके अनुसार जीवात्मा परमात्मा का अंश है, और मोक्ष की अवस्था में वह परमात्मा में लीन हो जाता है । अन्य हैं जो एकयानवाद को नहीं स्वीकार करते। उनके अनुसार गोत्र के तीन भेद वस्तुतः हैं। श्रावक क्लेशावरण का अपगम करता है, अर्थात् वह बाह्यार्थ के वस्तुत्व का प्रतिषेध करता है; किन्तु बोधिसत्य ग्राह्य-ग्राहक लक्षण से भी विमुक्त होता है, क्योंकि उसने धर्म-धातु का प्रत्यक्ष किया है, उसने धर्मों के अद्वय-तत्व को देखा है। इनका कहना है कि प्रत्येक का गोत्र नियत है, और बुद्ध भी चाहें तो गोत्र नहीं बदल सकते । इस प्रकार हमने निर्वाण के स्वरूप के संबन्ध में विविध विद्वानों के विचारों का वर्णन किया और यह दिखाने की चेष्टा की है कि बौद्ध-धर्म के अन्तर्गत विविध दर्शनों ने निर्वाण का क्या स्वरूप माना है।