पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४०

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भारतीय संस्कृति का रहस्य यही है। श्रीमद्भागवत में इसी को ब्रह्मत्व एवं भगवत्ता कहा गया है:- वदन्ति यत्तत्त्वविदस्तवं तज्ज्ञानमत्यम् । ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शन्धते ।। अर्थात् एक अद्वय ज्ञानात्मक तन्त्र को ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् कहा जाता है। एक तल को ही शान-दृष्टि से ब्रह्म, योग-दृष्टि से परमात्मा, भक्ति-दृष्टि से भगवान् कहते हैं। योग कर्मात्मक है-योगः कर्मसु कौशलम् । अतः शान, कर्म तया भक्ति या भाव इन तीनों का एक में महासमन्वय है । ब्रह्म निगुण, निःशक्ति तथा निराकार है। परमात्मा सगुण, सशक्ति एवं जानाकार है। भगवान् सगुण, सशक्ति और साकार है। तीनों का यह लक्षण-भेद है, किन्तु तीनों एक ही तत्त्व है। भागवत में जो श्रद्वय-जान उल्लिखित है, उसका विवरण वज्रयान सम्प्रदाय के अद्वयवज्रसिद्धि नामक ग्रन्थ में भी है :- यस्य स्वभावो नोत्पत्तिविनाशो नैव दृश्यते । तज्ञानमयं नाम सर्वसंकल्पवर्जितम् ।। [चर्याचर्यविनिश्चय की संस्कृत टीका में उद्धृत ] भागवत में भक्ति का जो स्थान है, बौद्धागम में करुणा का वही स्थान है। प्रज्ञापारमिता वया करूया के सामरस्य का तात्पर्य यह है-~-प्रज्ञा प्रभाव से सासव घातुओं का अतिक्रम है, तया करुणा के प्रभाव से इनका निर्वाण में प्रवेश नहीं होता, प्रत्युत जगत्-कल्याण के निमित्त अनासव धातु में स्थिति होती है। प्रख्या न भवे स्थानं कृपया न शमे स्थितिः । अर्थात् प्रज्ञा से संसार का दर्शन नहीं होता और कृपा से निर्वाण नहीं होता, सत्त्वार्थ- करणरूप पारतंत्र्य के प्रभाव से बोधिसत्व-गण भव या शम किसी में अवस्थान नहीं करते। पहले पारमिता-नय तया मंत्र-नय का उल्लेख किया गया है। बुद्ध से ही दोनों नय प्रवर्तित हुए थे। दोनों का प्रयोजन मी अभिन्न है। फिर भी विभिन्न दृष्टिकोणों से मंत्रशास्त्र का प्राधान्य माना जाता है । अद्यक्न ने लिखा है- एकार्थत्वेऽप्यसैमोहाद् बहूपायाददुम्करात् । तीक्ष्णेन्द्रियाधिकाराध मन्त्रशास्त्र विशिष्यते ॥ मंत्र-नय अत्यन्त गंभीर एवं विशिष्ट है। उच्चकोटि के अधिकार प्राप्त न हो जाने तक इसमें प्रवेश नहीं होता। मंत्र-विज्ञान प्रतिप्राचीन काल से भारत में प्रचलित था। उसकी तीव्र शक्तिमत्ता के कारण दुरुपयोग की श्राशका से प्राचार्यगण मंत्रमूलक साधना को जनसाधारण के समक्ष प्रकाशित नहीं करते थे। गुप्तभाव से ही इसका अनुष्ठान होता था। प्रथम धर्मचक्रप्रवर्तन की बात सर्व प्रसिद्ध है। द्वितीय तथा तृतीय धर्मचक्रप्रवर्तन के