पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४०२

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गौ-धर्म-दर्शन इस प्रकार यह चारों वादी हर्वास्तिवाद का निरूपण करते हैं। वसुबन्धु कहते है कि प्रथम को, जो परिणाम का वाद है, सांज्य-पक्ष में निक्षिप्त करना चाहिये । जो सांख्य-पक्ष में प्रतिषेध है, वही इस पक्ष का प्रतिषेध है । द्वितीय पक्ष में श्रध्व-संकर होता है, क्योंकि तीन लक्षणों का योग होता है । पुनः यहाँ साम्य क्या १ क्योंकि इस पुरुष में एक स्त्री के प्रति राग-समुदाचार होता है, और शेष स्त्रियों के लिए, केवल राग-प्राप्ति होती है । चतुर्थ पक्ष में तीन श्रध्व एक ही श्रध्व में प्राप्त होते हैं। एक ही प्रतीत अध्य में पूर्वापर क्षण की व्यवस्था है; यथा-पूर्व क्षण अतीत है, पश्चिम अनागत है, मध्यम प्रतिपन्न है । अतः इन सब में तृतीय मत वसुमित्र का शोभन है, जिसके अनुसार कारित्रवश अध्व और अवस्था व्यवस्थापित होते है । जब धर्म अपने कारित्र को नहीं करता, तब वह अनागत है । जब वह अपना कारित्र करता है, वह प्रत्युत्पन्न है ! जब कारित्र से उपरत हो जाता है, तब यह अतीत है । धर्म-प्रविचय प्रविषय का प्रयोजन-'धर्म' वह है जो स्वलक्षण धारण करता है । धर्म पुष्पों के समान व्यवकीर्ण है । उन्हें चुनते हैं (प्रविचीयन्ते), और उनका विभाग करते हैं कि ये अनासत्र हैं, ये सासव है, इत्यादि । इस प्रक्रिया को धर्म-प्रविचय कहते हैं। धर्म-प्रविनय-काल में प्रज्ञा नामक एक चैत्त धर्मविशेष का प्राधान्य होता है । अतः प्रज्ञा का लक्षण धर्म-प्रविचय है; यथा-वैशपिक- शास्त्र में पदार्थों के तत्त्वज्ञान से निःश्रेयस की सिद्धि होती है, उसी प्रकार सब धर्मों में अग्र- निर्वाण की प्राप्ति धर्म-प्रविचव से होती है। यही परम ज्ञान का अर्थ है । वैशेषिक-शास्त्र के अनुसार यह तत्वज्ञान द्रव्यादि पदार्थों के साधम्य-वैधयं से उत्पन्न होता है। तदनन्तर निदिध्यासन से अात्म-सानात्कार होता है। तदनन्तर मिथ्याज्ञानादि के नाश से मोक्ष होता है । यहाँ 'साधर्म्य समानधर्म, और 'वेध विरुद्धधर्म है । ये पदार्थों के सामान्य और विशेष लक्षण हैं । यथा अनुगत-धर्म और ब्यावृत्त-धर्म के ज्ञान से तत्वज्ञान होता है, उसी प्रकार अभिधर्म धर्मों के स्वलक्षण और मामान्य लक्षण के अभिमुख है। धर्म-प्रविचय-काल में प्रग इस कृत्य को संपादित करती है। धर्म सासव और अनासव हैं । श्रार्य-मार्ग को वर्जित कर अन्य संस्कृत-धर्म सास्तव हैं। यह सासर है, क्योंकि श्रासब वहाँ प्रतिष्टालाम करते हैं; अथवा पुष्टि-लाभ करते हैं । अासव 'मल' को कहते हैं । अनुशव पासव है, क्योंकि यह छः आयतन-व्रण से क्षरित होते हैं [ आसव, ५।४० ]। सासव धर्मों में पुष्टि और प्रतिष्ठा का लाभ कर अनुशय की बहुलता होती है । धों का एक दूसरा विभाग भी है। धर्म संस्कृत और असंस्कृत हैं। रूपादि स्कन्ध- पंचक संस्कृत-धर्म है । 'संस्कृत' की व्युत्पत्ति इस प्रकार है-जिसे प्रत्ययों ने श्रन्योन्य-समागम से, एक दूसरे की अपेक्षा कर (ममेत्य = संभृय) किया है (कृतम् )। कोई भी एक ऐसा धर्म नहीं है, जो एक प्रत्ययजनित हो, [ २६४] । संस्कृत को अध्व, कथावस्तु, सनिःसार और सबस्तुक भी कहते हैं। 'संस्कृत अध्व अर्थात् अतीत, प्रत्युत्पन्न और अनागत काल हैं; क्योंकि उनका गत-गच्छत्-गमिष्यत् भाव है । 'संस्कृत कथा के विषय हैं, अतः कथावस्तु हैं। यह सनिःसार