पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४०४

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बौद्ध-धर्म-दर्शन उभयथा कैसे विद्यमान हो सकता है १ कैसे वर्ण संस्थानात्मक हो राबता है ? वैभाषिक कहते हैं कि वर्ण और संस्थान, उभय का एक द्रव्य में वेदन-ग्रह होता है। यहां 'विद्' भानु कानार्थक है, सत्तार्थक नहीं । किन्तु सौत्रान्तिक उत्तर देते है कि तब काय-निजाम के भी वर्ण-संस्थानात्मक होने का प्रसंग होगा। सौत्रान्तिक का मत है कि संस्थान एक पृथक् वस्तु, एक अन्य द्रव्य नहीं है । यह प्रप्तिमात्र है। जब एक दिशा में वर्ग-रूप का बहुतर राहात उत्पन्न होता है, तो इस संहात को 'दीर्घ' की संज्ञा देते हैं। जब अपेक्षाकृत वर्ग-रूप संहात अल्प होता है, तो उग्र हस्व कहते हैं। दीर्घत्व रूप नहीं है, तथाना वरूप या टाटर (श्लक्षणादि ) को दीर्घ की प्रज्ञप्ति दी जाती है । वैभाषिक संस्थान और पर्ण को द्रमा तर मानते हैं। शब्द अष्टविध है । प्रथम यह चतुर्विध है । उपात्त-महाभूत-हे. क. अनुपात-गहाभूत-हेनुक, सत्वाख्य, असत्वाख्य । यह चतुर्विध शब्द मनोज्ञ-अमनोज्ञ ट रो पुनः श्राविध होता है। 'उपात्त' उसे कहते हैं, जिसे चित्त-वैत अधिष्टानभाव से अपीत और स्वीकृत करते हैं। इस प्रकार पंच ज्ञानेन्द्रिय भृत रूप, यह रू.५, जो इद्रियाविभिगी है, चिन से उपास है, स्वीकृत है । अनुग्रह उपधात की अवस्था में नित्त और इस सपने मात्र जो अन्योन्य अनुविधान होता है, उसका यह फल है । जिस रूप को अभिधर्म में 'उपात्त' का है, उसे लोक में संचेतन, सजीव कहते हैं। हस्त-शब्द वाक्-शब्द, प्रथम प्रकार का है। वायु, वनस्वात, नदी शब्द इस प्रकार का है । धाग्विज्ञप्ति-शब्द तीसरे प्रकार का है; क्योंकि यह मन को सचिन करता है (मत्यमाचष्टे)। अन्य शब्द चतुर्थ प्रकार का है। रस छः प्रकार का है:--मधुर, अम्ल, लल्ला, कटु, कपाच, सिक । गन्ध चतुर्विध है; क्योंकि सुगन्ध और दुर्गन्ध अनुत्कृष्ट और उत्कृष्ट । प्रकरणशास्त्र में गन्ध त्रिविश है--सुगन्ध दुर्गन्ध, और समसन्ध । स्प्रष्टव्य ग्यारह प्रकार का है । ग्यारह द्रव्य स्पष्टव्य द्रव्य हैं । महाभाक-चतुष्क, श्लक्ष्णत्व कर्कशव, गुरुत्व, लघुत्ल, शांतता, जिंवत्मा और पिासा । भूत, चार महाभूता-पृथ्वी-धातु, अब्धातु, तेजो-धातु, और वायु हैं | ये चार धातु-चतुष्टय है। यं धातु इसलिा. कहलाते हैं, क्योंकि ये अपने स्वलक्षण और उपादाय रूप या भौतिक रूप का धागा करते हैं । धृत्यादि कर्म से इनकी सिद्धि होता है । ये खर, स्नेह, उमाता, ईरण है। इसकी मिद्धि यथाक्रम धृति- कर्म, संग्रह-कर्म, पक्ति-कर्म, व्यूहन-कर्म से होता है। व्यूहन से वृद्धि और प्रसर्पण समझना चाहिये। यह इनके कर्म है। पृथिवी-धातु और पृथिवी में विशेष है । लोक-व्यवहार में जिसे पृथिवी शब्द से प्रजात करते हैं, वह वर्ण और संस्थान है । इसी प्रकार जल और तेज है ।