पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पंचदश अध्याय श्लदणल्य स्निग्धता है। कर्कशत्व कटोरता है। गुरुत्व वह है, जिसके योग से काय तोलनाई होते हैं, लघुत्व इसका विषय है। शीत वह धर्म है, जो ऊम्म की अभिलापा पैदा करता है । जिधन्सा वह धर्म है, जो बाहार की इच्छा उत्पन्न करता है । पिपामा वह धर्म है, जो पान की इच्छा उत्पन्न करता है। वास्तव में जिघत्सा और पिपामा शब्द से वह स्पष्टव्य प्रज्ञाप्त होता है, जो जिघत्सा और पिपासा का उत्पाद करता है । अब हम अविज्ञप्ति का निर्देश करते हैं। जिसका चित्त विक्षिप्त है, अथवा जो अचित्तक है, उसका महाभूतहेतुक कुशल और अकुशल-प्रवाह अविज्ञप्ति कहलाता है। असंशि-समाति और निरोध-रामापत्ति में समापन पुद्गल अचित्तक है । अविज्ञप्ति पुद्गल में, और चित्तक पुद्गल में भी, जिमका चित्त टो समापत्तियों में निरुद्ध नहीं हुआ है, अविज्ञप्ति होती है । सभामतः विज्ञप्ति और ममाधि से संभूत पान-अकुशल-रूप विज्ञप्ति है । यद्यपि यह अनुबन्ध काय विज्ञप्ति और वाग्यिप्ति के महश रूप-स्वभाव और क्रिया-स्वभाव है, तथापिका निम्ति के सदृश दूमर को कुछ विज्ञापित नहीं करता। अतः इसे अविज्ञप्ति कहते हैं । यह रूप-स्कन्ध में गिनाया गया है। 'रूप-उपादास-कन्धा उसे कहते हैं जो निरन्तर भिन्न, विभक्त होता है (रूप्यते)। तुद्रकागम में पटित अर्थवर्गीय-सूत्रों के एक श्लोक से मिद्ध होता है कि 'रूप्यते का अर्थ 'बाध्यते' है। किन्तु रूप केमे बाधित होता है ? विपरिणाम के उत्पादन से, विक्रिया से। अन्य प्राचार्यों के अनुसार रूपमात्र विपरिणाम नहीं है, किन्तु संप्रतियत्व या प्रतिधात है, यह स्वदेश में पर-रूप की उत्पत्ति में प्रतिया है । म अविज्ञप्ति के रूप को युक्त, सिद्ध कह सकते हैं। कायिक या वानिक विज्ञगि जिससे अविति गमुत्थापित होती है, रूप है। इसलिए अविज्ञप्ति रूप है। यथा--जब वृक्ष प्रचलित होता है, तब छाया प्रचलित होती है । दूसरा निरूपण यह है कि अविज्ञप्ति रूप है, क्योंकि महाभूत जो उसके आश्रयभूत हैं, रूप है। सौत्रान्तिक कहते हैं कि अधिप्ति द्रव्यतः नहीं है, क्योंकि किसी कर्म से विरति का अभ्युपाय करके उस कर्म का न करना मान ही विज्ञप्ति है । उसके अनुसार यह रूप नहीं है; क्योंकि उसमें रूप का लक्षण (रूप्यंत ; नहीं है । वैभाषिक उत्तर में कहते हैं कि रूप-संग्रह-सूत्र में उक्त है कि एक रूप श्रावज्ञान, अतित्र है । यह रूप केवल बिप्ति हो सकता है। एक दूसरे सूत्र का वचन है कि एक अनासव रूप है । यह अनासक रूप अदिप्ति है । वैभाषिक कहते है कि यदि अविज्ञप्ति नहीं है, तो स्वयं कर्म नहीं करता, किन्तु दूसरे को अाशा देता है। वह कर्म-पथ स समन्यागत नहीं होगा। ये भी कहते हैं कि नांद अविज्ञप्ति नहीं है, तो मार्ग अष्टाङ्गिक नहीं है । क्योकि तीन अंग-सम्यक्-वाक् , सम्यक्-कर्मान्त, सम्यगाजीव का समाधि से योग नहीं है। यदि समाधि की अवस्था में योगी इन तीन अङ्गों से समन्वागत होता है, तो उसका कारण यह है कि ये तीन अंग स्वभाववश अविज्ञप्ति है । सौत्रान्तिक अविज्ञप्ति न मानकर 'सन्तति-परिणाम-विशेष मानते हैं। उनके अनुसार जब वध के लिए