पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४०६

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चौरम्पर्म दर्शन नियुक्त पुरुष वध करता है, तो यह न्याय है कि प्रयोक्ता की चित्त-सन्तति में एक सूक्ष्म परि- णाम-विशेष होता है, जिसके प्रभाव से यह सन्तति श्रायति में फल की अभिनिष्पत्ति करेगी। इस परिणाम-विशेष को कायिक कहते हैं, यदि वह काय-क्रिया का फल होता है; और वाचिक कहते हैं, यदि वह वाक्-क्रिया का फल होता है। वे यह भी कहते हैं कि ध्यानों में समाधि- बल से एक रूप उत्पन्न होता है, जो समाधि का विषय है, अर्थात् जिसका ग्रहण समाहित श्राश्रय करता है । यथा--अशुभ भावना में अस्थि-संकल । यह रूप चतुरिन्द्रिय से देखा नहीं बाता। इसलिए यह निर्दशन है। यह देश को प्रावृत नहीं करता, इसलिए यह अप्रतिष है। यह रूप अनाव है यदि समाधि अनासव है। किन्तु सर्वास्तिवादी प्रश्न करता है कि यह द्वेष क्यों है कि आप अविज्ञाप्त के भाव का तो प्रतिषेध करते हैं, किन्तु सन्तति-परिणाम- विशेष को स्वीकार करते हैं । श्राचार्य वसुबन्धु कहते हैं कि दोनों 'बाद' दुःख-बोध है । इसलिए, प्रथम मत से मुझे कोई द्वेष नहीं है, किन्तु इससे परितोप नहीं होता। रूप-निर्देश समाप्त होता है । यहा इन्द्रिय और इन्द्रियार्थ पायतन की व्यवस्था में दश श्रायतन (चित्त-चैत्त का आय-द्वार ) और धातु ( श्राकार ) की व्यवस्था में दश धातु है । अब अन्य स्कन्धों का निरूपण करना है। वेदना दुःखादि अनुभव है । वेदना-स्कन्ध त्रिविध अनुभूति है :--सुख, दुःख, अदुःखासुख । वेदना के छ: प्रकार हैं, जो चक्षुरादि पांच रूपी इन्द्रियों के स्वविषय के साथ संस्पर्श होने से उत्पन्न होता है, जो मन इन्द्रिय के साथ संस्पर्श होने से उत्पन्न होता है । संज्ञा निमित्त का उद्ग्रहण है । नीलत्व, पीतत्व, दीर्घत्व, हस्वत्व, पुरुषत्व, स्त्रीत्व आदि विविध स्वभावों का उद्ग्रहण संजा-स्कन्ध है । वेदना के तुल्य संज्ञा काय के मी इन्द्रिय के अनुसार छः प्रकार हैं। अन्य चार स्कन्धों से भिन्न जो संस्कार है, वे संस्कार-स्कन्ध है । सर्व-संस्कृत संस्कार है, किन्तु संस्कार-स्कन्ध उन्हीं संस्कृतों के लिए प्रयुक्त होता है, जो अन्य चार स्कन्धों में संगृहीत नहीं है। यह सत्य है कि सूत्र में कहा है कि संस्कार-स्कन्ध छः चेतना काय है, और इस लक्षण के अनुसार संस्कार-स्कन्ध में सत्र विप्रयुक्त संस्कार और चेतनावर्जित संप्रयुक्त संस्कार का असंग्रह है, किन्तु अभिसंस्करण में चेतना का प्राधान्य होने से सूत्र का ऐसा निर्देश है । चेतना कर्मस्वभाव है। लक्षणतः यह यह हेतु है, जो उपपत्ति का अभिसंस्करण करता है। अन्यथा स्व-निर्देश का अक्षरार्थ लेने से यह परिणाम होगा कि चेतना व्यतिरिक्त शेष चैतमिक ( मंप्रयुक्त ) धर्म और सब विप्रयुक्त धर्म किसी स्कन्ध में संगृहीत न होंगे, इसलिए, इनका दुःख-समुदयत्व सत्य न होगा; न परिज्ञा होगी, न प्रहाण; किन्तु भगवान् का वचन है कि यदि एक धर्म भी अनभिजात, अपरिजात हो, तो मैं कहता हूँ कि दुःख का अन्त नहीं किया जा सकता। अतः चत्त और विप्रयुक्त का कलाप संस्कार-स्कन्ध में संग्रहीत हैं। वेदना-स्कन्ध, संज्ञा , संस्कार', विज्ञप्ति और तीन प्रसंस्कृत-यह सात द्रव्य धर्मायतन, धर्म-धातु कहलाते हैं । विज्ञान प्रत्येक विषय की उपलब्धि है। विज्ञान-स्कन्ध छ: विज्ञान-काय हैं :-चक्षुर्विज्ञान........"मनोविज्ञान ! अायतन देशना में यह मन-आयतन है, और धातु-देशना में वह सप्त चित्त-धातु, अर्थात् छः विज्ञान और मन हैं।