पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४०९

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पंचवा अध्याप संज्ञा से तथा चतुर्थ श्रारूप्य, अर्थात् भवाग्र-सरकारमात्र ( चेतना ) से प्रभावित होते हैं । स्कन्धों का अनुक्रम क्षेत्र-बीन संदर्शनार्थ है । पहले चार स्कन्ध क्षेत्र है। पांचवां चीज है। प्रसंसत-धर्म हम सासव संस्कृत-धर्मों का निर्देश कर चुके हैं। मार्ग-सत्य, और तीन असंस्कृत अनासव है । श्राकाश, प्रतिसंज्ञा-निरोध और श्रप्रतिसंख्या-निरोध असंस्कृत हैं। भाकाश-श्राकाश वह है, जो श्रावृत नहीं करता, और यह रूप से श्रावृत भी नहीं होता । यहाँ रूप की अबाध गति है। श्राकाश को सौत्रान्तिक वस्तु-सत् नहीं मानते । उनके अनुसार रूपाभाव मात्र के लिए, सप्रतित्र द्रव्य के अभाव के लिए, आकाश का व्यवहार होता है । अाकाश अाकाश-धातु से भिन्न है । छिद्र को आकाश-धान की प्राख्या देते हैं । द्वार गवाक्षादि का छिद्र बाह्य अाकाश-धातु है । मुख नासिकादि का छिद्र श्राध्यात्मिक श्राकाश-धातु है । वैभाषिक के अनुसार छिद्र या अाकाश-धानु पालोक और तम है, अर्थात् वर्ण का, रूप का, एक प्रकार है । छिद्र की उपलब्धि पालोक और तम से पृथक् नहीं है । प्रविमस्या-निरोध-मासब धर्मों से विर्मयोग, प्रतिसंख्या या निर्वाण है । प्रतिसंख्या या प्रतिसंख्यान से एक प्रज्ञा-विशेष का, अनासव प्रज्ञा का, दुश्यादि आर्य-सत्यों के अभिसमय का ग्रहण होता है। इस प्रज्ञाविशेष से जिम निरोध की प्राप्ति होती है, वह प्रतिसंख्या-निरोध कहलाता है । सब सासव-धर्मों के लिए, एक प्रतिसंख्या नहीं होती। प्रत्येक विसंयोग पृथक्-पृथक् प्रतिसंख्या है। जितने संयोग-द्रव्य होते हैं, उतने ही विसयोग-द्रव्य होते हैं। यदि अन्यथा होता, तो जिस पुद्गल ने दुश्व-तत्य-दर्शन से प्रहातव्य क्लेशों के निरोध का लाम किया है, उसके लिए शेष क्लेशों के प्रतिपक्षभूत मार्ग की भावना व्यर्थ होगी। अतिसंख्या-निरोध-गक अन्य निरोध है, जो उत्साद में अत्यन्त विघ्नभूत है, अप्रति- संख्या कहलाता है । इस निरोध की प्राप्ति मल्याभिसमय से नहीं होती, किन्तु प्रत्यय-वैकल्य से होती है । प्रत्यय दैकल्य, यथा जब चतुरिन्द्रिय और मन-इन्द्रिय एक रूप में व्यासक होते हैं, तब रूपान्तर, शब्द, गन्ध, रस स्प्राव्य प्रत्युत्पन्न श्रध्व का अतिक्रमण कर तीत अध्व में प्रतिपन होते है। ये तीन प्रसंस्कृत अध्व-विनिर्मुक्त है। गिरोष पर सौत्रान्तिक मत-सौत्रान्तिक कहते हैं कि दो निरोध भी अभाव है । सर्वास्ति- वादी कहते हैं कि यदि निर्वाण अभाव है, तो यह तृतीय सत्य कैसे है ? और उस विशन का श्रालंबन,निसका श्रालंबन श्राकाश और दो निरोध है, अबस्तु होगा। पुनः यदि निर्वाण प्रभाव है, तो श्रभाव की प्राप्ति कैसे होती है । सौत्रान्तिक सूत्रों का प्रमाण देकर सिद्ध करना चाहते है कि निर्वाय अभावमात्र है। सूत्र वचन है :--"इस दुःख का अशेष प्रहाण, शान्तिभाव, क्षय, विराग, निरोध, उपशम, अस्तंगम, अन्य दुःख की अप्रतिसन्धि, अनुपादान, अप्रादुर्भाव यह शान्त प्रणीत है, अर्थात् सर्वोपधि का प्रतिनि.सर्ग, तृष्णा-क्षय, विराग, निरोध, निर्वाण है। अत: निर्वाण 'श्रवस्तुका है। अर्थात् अद्रव्य, निःस्वभाव है। वैभाषिक इस अर्थ को