पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४११

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पंचदशा मण्याप सालिनी में तथा अनिरुद्धाचार्य के अभिधम्मथसंगहो में रूप-कलाप योजना का वर्णन है । यह योजना सर्वास्तिवादियों के संघात परमाणु से मिलती-जुलती है । पश्चात् यह कलाप-योजना स्थविरवाद के दर्शन का एक अविभाज्य अंग बन गई । सर्वास्तिवाद-मास्तिवादियों के अनुसार परमाणु चौदह प्रकार के हैं.–पात्र विज्ञानेन्द्रिय, पाँच विषय, तथा चार महाभूत । ये संघातरूप में भाजन-लोक में पाए जाते हैं । इन्हें संघात-परमाणु कहते हैं। इन्हीं को स्थविरवादी 'कलाप' कहते हैं, जिसमें केवल श्राट अविनिर्भाग रूप होते हैं, वह 'शुद्धाटकर है । अाकाश-धातु कलापों का परिच्छेदमात्र है । उपचय, संतति, जरता, और अनित्यता, ये चार लक्षण रूप-कलापों के लक्षणमात्र हैं। ये कलापों के अंग नहीं है। वसुबन्धु-वसुबन्धु परमाणु का विचार रूपी धर्मों के सहोलाद-नियम के संबन्ध में करते हैं । वे स्पष्ट करते हैं कि यहाँ परमाणु से द्रव्य-परमाणु इष्ट नहीं है, किन्तु संघात-परमाणु, अर्थात् सर्व सूक्ष्म रूप-संबात इट है, क्योंकि रूप-संघातों में इससे सूक्ष्मतर नहीं है । वसुबन्धु द्रव्य-परमाणु मानते हैं, जो रूपमण से मुक्त हैं, किन्तु वे कहते हैं कि एक परमाणु-रूप पृथग्भूत नहीं होता और संघातस्थ ( संचित ) होने के कारण संघात की अवस्था में इसका बाधनरूपण और प्रतिघातरूपण हो सकता है | सप्रतिष रूपों का सर्वसूक्ष्म भाग, जिसका पुनः विभाग नहीं हो सकता, परमाणु कहलाता है । इसे सर्वसूक्ष्म रूप कहते हैं, यथा--सर्वसूक्ष्म काल को क्षण कहते हैं। यह अर्ध-क्षणों में विभक्त नहीं हो सकता। कम से कम आट द्रव्यों का सहोत्पाद होता है, और इनका अशब्द, अनिन्द्रिय संघालाणु होता है। ये पाठ द्रव्य इस प्रकार हैं- महाभूत, चार भौतिक-रूप, रस, गाई, और स्पष्टव्य । अत्र परमाणु में शब्द उत्पन्न नहीं होता, किन्तु कायेन्द्रिय ( कायायतन ) होता है तो इसमें एक नवां द्रव्य कायेन्द्रिय होता है । जब परमाणु में शब्द उत्पन्न नहीं होता, किन्तु कायेन्द्रिय को वर्जितकर अन्य इन्द्रिय ( चक्षुरादि ) होता है, तो इसमें एक दशवाँ द्रव्य अपरन्द्रिय (चक्षुरादि ; होता है, क्योंकि चक्षु- श्रोत्रादि इन्द्रिय, कान्द्रिय-प्रतिबद्ध हैं, और पृथक्वतः प्रायतन हैं । जब पूर्वोक्त संघात- परमाणु सशब्द होते हैं, तब यथाक्रम नव-दश-एकादश द्रव्य उत्पन्न होते हैं। वास्तव में जो शब्दायतन उपात्त महाभूतों से उत्पादित होता है, वह इन्द्रियाविनिर्भागी होता है। यदि पृथिवी-धातु श्रादि चार महाभूतों का अविनिर्माग है, यदि वे संघात-परमाणु में सहवर्तमान होते हैं, तो यह कैसे है कि एक संघात में कठिन, द्रव, उग्ण या समुदीरणा का ग्रहण होता है, और उसमें इन चार द्रव्यों या स्वभावों का युगपत् ग्रहण नहीं होता ? हम एक संघात में द्रव्यों में से उस द्रश्य की उपलब्धि करते है, जो यहाँ पटुतम (फुटतम ) होता है, जो प्रसवतः उद्भूत होता है; अन्य द्रव्यों की नहीं। यथा- जब हम सूची-तूली-कलाप का स्पर्श करते हैं, तो हम सूनो की उपलब्धि करते हैं, यथा-जब हम लवणयुक्त सकु-चूर्ण खाते हैं, तो लवण रस की उपलब्धि करते हैं। --चार