पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४१२

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FRU प्रश्न है कि आप यह कैसे जानते हैं कि एक संघात में महाभूत होते हैं, जिनके सद्भाव की उपलब्धि नहीं होती। सब महाभूतों का अस्तित्व उनके कार्यविशेष से गमित होता है । तेजोधातु का अस्तित्व बल में है, क्योंकि जल में शैल्य का अतिशय है। यह तेज के अन्यतर- तमोत्पत्ति से ज्ञात होता है। यह मत भदन्त श्रीलाभ का है । सौत्रान्तिक सौत्रान्तिकों के अनुसार संघात में जिन महाभूतों की उपलब्धि नहीं होती, वे बीजतः (शक्तितः, सामर्थ्यतः ) वहाँ होते हैं, कार्यतः, स्वरूपतः नहीं होते। सौत्रान्तिक एक दूसरा आक्षेप करते है-वायु में वर्ण के सद्भाव को कैसे व्यवस्थित करते हैं ? वैभाषिक उत्तर देते हैं कि यह अर्थ श्रद्धनीय है, अनुमानसाध्य नहीं है। अथवा वायु वर्णवान् है, क्योंकि वायु का गन्धवान् द्रव्य से संसर्ग होने से गन्ध का ग्रहण होता है; किन्तु यह गन्ध वर्ण के साथ व्यभिचार नहीं करता। सौत्रान्तिकों के अनुसार परमाणु चतुद्रव्यक है-रूप, गन्ध, रस,प्रष्टव्य। वैशेषिक वैशेषिकों का परमाणु नित्य है, अर्थात् सत् और अकारणवत् है [४१२।२] । यह भावरूप, अजन्य, विनाशाप्रतियोगी वस्तु है। यह अवयवियों का मूलकारण है । ये परमाण्वादि क्रम से जगत् का प्रारंभ मानते हैं। ये उस मत का निराकरण करते हैं, बो अभाव से भावोत्पत्ति मानता है । कार्य इसका अनुमापक है । प्रसरेणु आदि कार्य द्रव्य इसका लिङ्ग है । परमाणु की सत्ता यदि न मानी जाय, तो अवयव-अवयवी-धारा अनन्त, निरवधि होगी और उस अवस्था में मेक- सर्पप का परिमाणभेद नहीं होगा, उनके साम्य का प्रसङ्ग होगा; क्योंकि दोनों का प्रारंभ अनन्त अवयवों से होगा। इसलिए कहीं न कहीं विश्राम करना चाहिये । त्रसरणु पर विश्राम नहीं कर सकते, क्योंकि त्रसरेणु सावयव है; वह चातुप द्रव्य है, क्योंकि यह महान् और अनेक- द्रव्यवान् है । महत्त्व उसके चाहप-प्रत्यक्षत्व में कारण है, और महत्व अनेक द्रव्यवत्व के कारण होता है। सरेणु के अवयव भी परमाणु नहीं है, क्योंकि वे भी महत् द्रव्य के श्रारंभक होने से तन्तु के समान सावयव हैं। अत: जो कार्यद्रव्य है, क सावयव है; जो सावयत्र है, वह कार्यद्रव्य है। जिस अवयव से कार्यत्व की निवृत्ति होती है, उससे सावयवत्व की भी निवृत्ति होती है । इस प्रकार निरवयव परमाणु की सिद्धि होती है । परमाणु का रूपादि होता है; क्योंकि कार्य में उसका सद्भाव, कारण में सद्भाव से होता है। कार्य-गुण, कारण-गुण- पूर्वक होते हैं। [ कारणभावात् कार्यभाया, ४।१।३।] यह नाक्षेप होता है कि परमाणु अनित्य हैं, क्योंकि वे मूर्त है, क्योंकि उनका रूप- रसवत्व है, क्योंकि छः परमाणुओं के साथ युगपत् योग होने से परमाणु की पडेशता है। पुनः यदि परमाणु के मध्य में श्राकाश है, तो सच्छिद्र होने से उसका सावयवस्य होगा। यदि श्राकाश नहीं है, तो श्राकाश के असर्वगत होने का प्रसंग होगा। पुनः-क्योंकि बो सत् है, वह क्षणिक है, अतः इस क्षणिकत्व-साधक अनुमान से परमाणु की अनित्यता सिद्ध होती है। इस आक्षेप के उत्तर में वैशेषिक कहते है कि यह भ्रम है कि परमाणु का अस्तित्व कारणावस्था में नहीं हो सकता, क्योंकि परमाणु कार्यरूप में हो पाए