पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४१५

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चन अध्याय भारमीर-वैभाषिक-काश्मीर-वैभाषिकों के अनुसार चहु देखता है, श्रोत्र सुनता है, प्राण सूघता है, बिहा रस लेती है, काय स्पर्श करता है, मन जानता है । सौत्रान्तिक-सौत्रान्तिक-मत है कि चक्षु और रूप के कारण चक्षुर्विज्ञान उत्पन्न होता है, न कोई इन्द्रिय है जो देखती है; और न कोई रूप है, जो देखा जाता है; न कोई दर्शन क्रिया है, न कोई कर्त: है, जो देखता है; हेतु-फल मात्र है। अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार के लिए, उपचार करते हैं-चक्षु देवता है, विज्ञान जानता है। किन्तु इन उपचारों में अभि- निविष्ट नहीं होना चाहिये । इन्द्रियों का प्राप्तविषयत्व-अप्राप्तविषयत्व--क्या ये इन्द्रियाँ अपने विषय-देश को प्राप्त होती हैं । चक्षु, श्रोत्र, मन अप्राप्त अर्थ का ग्रहण करते हैं। अन्य तीन इन्द्रियों के लिए अन्यथा है। तीन इन्द्रियों के लिए कहा जाता है कि यह प्राप्त विश्य है, क्योंकि विषय का इनके साथ निरन्तरत्व रहता है । निरन्तरत्व क्या है ? निरन्तरत्व इसमें है कि इसके मध्य में कुछ नहीं है । यही 'प्राप्त' का भी अर्थ है । पुनः क्योंकि संघात के अवयव होते हैं, इसलिए इसमें कोई दोष नहीं है कि संघात स्पर्श करते हैं । पहले पाँच विद्वानों के विषय उनके सहभू हैं। पष्ट विज्ञान का विषय उसके पूर्व का, महोत्पन्न, या अपर है । दूसरे शब्दों में यह अतीत, प्रत्युत्पन्न या अनागत है । पष्ठ विज्ञान का एकमात्र आश्रय अतीत विज्ञान है । प्रथम पांच का आश्रय सहज भी है, अर्थान् यह विज्ञान के पूर्व का और सहज दोनों है। वास्तव में पांच विज्ञानकायों को आश्रय द्विविध है :-- १. चहुरादि इन्द्रिय जो विज्ञान का सहभू है, २. मन-इन्द्रिय जो विज्ञानोत्पत्ति के क्षण में अतीत होता है। जब चक्षुर्विज्ञान चतु और रूप पर आश्रित है, तो विष को वर्जित कर इन्द्रिय को भी विज्ञान का आनय अवधारित करते हैं। विज्ञान का प्राश्रय इन्द्रिय है, क्योंकि इन्द्रिय के विकार से विज्ञान में विकार होता है । जब चक्षु का अनुग्रह होता है (अंजनादि-प्रयोग), जब चक्षु का रेणु अादि से उपघात होता है, जब वह पटु होता है, जब वह मन्द होता है, तब विज्ञान में उस विकार का अनुविधान होता है। वह सुख-दुःखोत्पाद से सहगत होता है। वह यथाक्रम पटु या मन्द होता है । इसके विपरीत विज्ञान की अवस्था पर विषय का कोई प्रभाव नहीं पड़ता | अत: इन्द्रिय, न कि विश्य, विज्ञान का श्राश्रय है। सिद्धान्त में स्थिर हुअा है कि चहु, श्रोत्र, घाण, निहा, काय, प्रत्येक अपने अपने विषय का ग्रहण करते हैं, और मन जानता है । यहाँ प्रश्न होता है कि क्या ये इन्द्रियाँ अपने विषय को प्राप्त होती है। चतु, श्रोत्र, मन, अप्राप्त अर्थ का ग्रहण करते हैं। प्राण, जिला, काय, प्राप्त विषय का ग्रहण करते हैं। यदि चक्षु और श्रोत्र का प्राप्त-विषयत्व हो, तो मनुष्यों में ध्याथियों के दिव्य-चक्षु और श्रोत्र न हों, जैसे उनके दिव्य धाण नहीं होता। प्राण के लिए प्राप्त-विषयव इसलिए आवश्यक है, क्योंकि गन्ध-ग्रहण के लिए उच्छ्वास श्रावश्यक है ।