पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४१७

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पंचदा अध्याय ३२६ पांच विधानेन्द्रिय-चक्षुरिन्द्रियादि पाँच इन्द्रियों में से प्रत्येक का श्राधिपत्य-१, अात्म- भाव-शोभा, २. अात्ममाव-परिरक्षण, ३. विज्ञान और तद्विज्ञान-संप्रयुक्त चैतसिकों का उत्पाद और ४. असाधारण-कारणल्य, इन विषयों में है। पुरुषेन्द्रिय, मोन्द्रिय, जाषितेन्द्रिय, और मन-इन्द्रिष-इनमें से प्रत्येक का आधिपत्य सत्व-भंद और सत्व-विकल्प-भेद में हैं । इन दो इन्द्रियों के कारण सस्यों में त्री-पुरुष-भेद, और स्त्री-पुरुषों में संस्थान, स्वर और आचार का अन्यथाव होता है। जीवितेन्द्रिय का श्राधिपत्य निकाय-सभाग की उत्पत्ति और उसके मंधागा में है। मन-इन्द्रिय का श्राधिपत्य पुनर्मव-संबन्ध में है । इसका आधिपत्य वशीभावानुवनन में भी है। यथा गाथा में उक्त है-चित्त से लोक उपनीत होता है । चित्त से परिशिष्ट होता है । सब धर्म इस एक धर्म-नित्त के वशानुवर्ती हैं। वेदनेण्ट्रिय–वेदनेन्द्रिय पाँच हैं :-मुग्व, दुःख, सौमनस्य, दौमनस्य, उपेक्षा । इनका सकश में श्राधिपत्य है, क्योंकि गगादि अनुशय वेदनाओं में व्यासक्त होते है। श्रद्धादि पंचेन्द्रिय और अन्तिम तीन इन्द्रिय-अनाशात', श्राज्ञा', श्राजानावी --~-व्यवधान में अधि- पति हैं, क्योंकि इनके कारण विशुद्धि का लाभ होता है। श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रथा के बल श का विकभन और शार्यमार्ग का श्रावन होता है । अन्तिम तीन इन्द्रिय अनासव है । निर्वाणादि के उत्तरोत्तर प्रतिलभ में इनका श्राधिपत्य है। कर्मेन्द्रिय का सएडम-प्रश्न है कि केवल २२ इन्द्रियों क्यों परिगणित है। अविद्या और प्रतीत्यसमुत्पाद के अन्य यंग इन्द्रिय क्यों नहीं है ! हेत का श्राधिपत्य कार्य पर होता है। अविद्यादि का संस्कारादि पर आधिपत्य है। इसी प्रकार वाक , पाणि, पाद, पायु, उपस्थ का भी; जिन्हे सांख्य और वेदान्तवादी कमेन्द्रिय कहते हैं, इन्द्रियत्व होगाक्योंकि वचन, श्रादान, विहरणादि पर इनका आधिपत्य है । वैभाविक उत्तर देता है कि जिस अर्थ से भगवान ने २२ इन्द्रियाँ कहीं हैं, उस अथ से इस सूची में अविद्यादि का श्रयोग है । इन्द्रियों की संख्या नियत करने में भगवान् ने निम्न बातों का विचार किया है :- १. नित्त का श्राश्रय, अर्थात्--छः विज्ञानेन्द्रिय । ये छः श्राध्यात्मिक श्रायतन है, जो मौल सत्व-द्रव्य है। २. चित्त के श्राश्रय का विकल्प --यह षड्विध प्राश्रय पुरुषेन्द्रिय, स्वीन्द्रिय के कारण विशिष्ट होता है। ३. स्थिति–पाँच बाक्तेिन्द्रियाश यह एक काल के लिए, अवस्थान करता है। ४. उपभोग-वेदनाओं से यह संक्लिष्ट होता है। ५.श्रद्धादिपंचक से इसका व्यवदान-संभरण होता है। सत्व और द्रव्य सत्य के विकल्पादि के पि में जिन धर्मों का अधिपतिभाव होता है, वे इन्द्रिय माने जाते हैं। वाक् श्रादि अन्य धर्मों में इस लक्षण का प्रभाव होता है, अत: वाक्, पाणि, पाद, पायु, उपस्थ का इन्द्रियत्व नहीं है । वचन पर वार का आधिपत्य नहीं है, स्योंकि वचन शिक्षाविशेष की अपेक्षा करता है। पाणि-पाद का आदान और विहरण में