पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४१८

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आधिपत्य नहीं है, क्योंकि जिसे श्रादान और विहरण कहते हैं, वह पाणि-पाद से अन्य नहीं है। इसके अतिरिक्त उरग प्रभृति का श्रादान-विहरण बिना पाणि-पाट के होता है । पुरीयो- त्सर्ग में पायु का आधिपत्य नहीं है, क्योंकि गुरु-द्रव्य का सर्वत्र श्राकाश-छिद्र में पतन होता है । पुनः वायु-धातु इस श्रशुचि द्रव्य का प्रेरण करता है, और उसका उत्सर्ग करता है। उपस्थ का भी अानन्द में प्राधिपत्य नहीं है, क्योंकि अानन्द स्त्री-पुरुषेन्द्रिय कृत है । पुनः यदि श्राप पाणि-पादादि को इन्द्रिय मानते हैं, तो आपको कंट, दन्त, अक्षिवर्म, अंगुलिपर्व का भी अभ्यवहरण, चर्वण, उन्मेष-निमेष, संकोच-विकास क्रिया के प्रति इन्द्रियत्न मानना पड़ेगा। न्याय-वैशेषिक भी पांच कमेन्द्रियों के लिए 'इन्द्रिय पद का प्रयोग नहीं करते । सांख्य, वेदान्त, और मनुस्मृति [ NE-६२ ] में अवश्य इनको इन्द्रिय माना है, और कहा है कि यह प्राचीन मत है । वाचस्पतिमिश्र कहते है-- शास्त्र में इन्द्रिय शब्द का यह गौण प्रयोग है । गौतम इन्द्रिय के पंचल्य-सिद्धान्त का समर्थन करते हैं । गौतम के अनुसार जो प्रत्यक्ष का साधन है, वही इन्द्रिय है । वाक्-पाणि प्रभृति प्रत्यक्ष के साधन नहीं हैं। इनमें इन्द्रिय का लक्षण नहीं है । यदि यह कहकर कि यह असाधारण काविशेष का साधन है, इसलिए हम इनका इन्द्रियत्व स्थापित करें, तो कण्ठ, हृदय, श्रामाशय प्रभृति को भी कमेन्द्रिय कहना होगा, किन्तु ऐसा कोई नहीं कहता तात्पर्यटीका ] । पांच अबादि इन्द्रिय-श्रद्धादि पंचक का उल्लेख केवल योगसूत्र [ समाधिपाद, सू० २०] में है, किन्तु इनको वहां इन्द्रिय नहीं कहा है। जीवितेन्द्रिय का निर्देश चित्त- विप्रयुक्तों के साथ होगा। श्रद्धादि पंचक चैत्त है, अतः चैत्तों में उनका निर्देश होगा। वेदनेन्द्रिय और अनासपेन्द्रिय का निर्देश हम यहां करते हैं । कायिकी उपघातिका वेदना, जो चक्षुर्विज्ञानादि से संप्रयुक्त है, दुःखेन्द्रिय है । अनु- माहिका कायिकी वेदना सुखेन्द्रिय है। तृतीय ध्यान में चैतसी अनुग्राहिका वेदना भी मुखेन्द्रिय है। चैतसी वेदना मनोविज्ञान-संप्रयुक्त वेदना है। तृतीय ध्यान से ऊर्ध्व चैतसी अनुमाहिका वेदना का अभाव है । चैतसी उपघातिका वेदना दौर्मनस्य है। कायिकी और चैतसी की मध्या वेदना उपेक्षा है, किन्तु यह एक ही इन्द्रिय है; क्योंकि यहाँ कोई विकल्पन नहीं है । प्रायेण उपधातिका और अनुग्राहिका चैतसिवी वेदना प्रिय- अप्रियादि विकल्प से उत्पन्न होती है। इसके विपरीत कायिको वेदना की उत्पत्ति, चित्त की अवस्था से स्वतंत्र विषयवश होती है। अर्हत् राग-द्वेप से विनिर्मुक्त है, उन्होंने प्रिय-अप्रिय विकल्प का प्रहाण किया है; तथापि उनमें कायिक मुन्न-सुाग्य का उत्पाद होता है, किन्तु उपेक्षा वेदना कायिकी हो या चैनसिकी, कायिनी वेदना के तुल्य स्वरसे उत्पन्न होती है । अतः कायिकी चेतसिकी इन दो उपेक्षा-वेदनात्रों के लिए, एक ही इन्द्रिय मानते हैं । तीन अनामवेन्द्रिय-अत्र हम तीन अनासव इन्द्रियों का विचार करते हैं। मन, सुख, सौमनस्य, उपेक्षा, श्रद्धादि-पंचक ये नव द्रव्य दर्शनमार्गस्थ ार्य में अनाज्ञातमाशास्यामीन्द्रिय भावनामार्गस्थ आर्य में प्रागेन्द्रिय और अशैन (= अर्हत् मार्गस्थ प्रार्य में प्राज्ञातावीन्द्रिय व्यवस्थापित होते हैं।