पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४२

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ही। यह प्राचार्य वसुबन्धु के ज्येष्ठ प्राता थे। उस समय के महायोगियों में यह प्रसिद्ध थे। इनके महायानसूत्रालंकार में तांत्रिक प्रभाव स्पष्ट प्रतीत होता है। प्रसिद्धि है कि मैत्रेय के उपदेश से प्रसंग का धार्मिक जीवन आमूल परिवर्तित हुआ था। वर्तमान अनुसंधान से प्रतीत होता है कि मैत्रेय एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे। इनका नाम मैत्रेयनाथ था। वस्तुत: महायान- खुलालंकार की मूलकारिका इन्हीं की रचित है । वस्तुतः बौद्ध-धर्म पर तंत्र का प्रभाव असंग से पहले ही पड़ चुका था। मंजुश्रीमूलकल्प नामक अन्य का परिचय प्रायः सभी है। इसके अतिरिक्त उस समय अष्टादश पटलात्मक गुह्मसमाज की भी बहुत प्रसिद्धि थी। परवर्ती बोर तांत्रिक साधना के विकास में गुह्मसमाज का प्रभाव अतुलनीय था। इस पर नागार्जुन, कृष्णा- चार्य, लीलावा, शान्तिदेव प्रभूति विशिष्ट प्राचार्यों का भाष्य था। इतना ही नहीं, परवर्ती काल के दीपकर श्रीशान, कुमारकलश, ज्ञानकोचि, श्रानन्दगर्भ, चन्द्रकीति, मंत्रकलश, ज्ञान- गर्भ तथा दीपंकरभद्र प्रभृति बहुसंख्यक सिद्ध और विद्वान् बौद्ध पण्डितों ने इस ग्रन्थ मे उक्त तत्वों के विषय में महत्वपूर्ण नाना अन्यों की रचना की थी। असंग के छोटे भाई पहले भाषिक थे। बाद में असंग के प्रभाव से परिपक्व योगाचारी बन गये थे । असंग गुखसमाज के रचयिता थे या नहीं, कहना कठिन है । किन्तु दोनों में घनिष्ट संबन्ध अवश्य था । प्राचीन शैव तथा शाक भागमों के सक्ष्म तथा व्यापक बालोचन से शात होता है कि असंग, नागार्जुन श्रादि प्राचार्य उनके प्रभाव से मुझ नहीं थे। कामाख्या, जालंधर, पूर्णगिरि, उड्डीयान, श्रीपर्वत, व्याघ्रपुर प्रभूति स्थान तांत्रिक विद्या के साधन केन्द्र थे। मातुका साधन के उपयोगी क्षेत्र भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों में फैले हुए थे। मंत्र-साधन प्राचीन वागयोग का ही एक विशिष्ट प्रकार मात्र है। पहले कहा जा चुका है कि बौद-मत में पारमिता-नय के सहश मंत्र-नय के भी प्रवर्तक बुद्ध ही है। क्रमशः मंत्रमार्ग में अवान्तर भेद-वज्रयान, कालचक्रयान, तथा सहजयान प्राविभूत हुए । इनमें किंचित् भेद है, किन्तु बहुत अंशो में सादृश्य है। वस्तुतः सभी मंत्र- मार्ग के ही प्रकार-भेद हैं। इस दृष्टि में नहीं है। मालूम होता है, एक ही साधन-धारा विभक होकर भाव के गुण-प्रधानभाव से विभिन्न रूप में न्यास हो गई। पारमिता-नय का प्रायः समस्त साहित्य विशुद्ध संस्कृत में है, किन्तु मंत्र-नय का मूल कुछ संस्कृत, कुछ प्राकृत और कुछ अपभ्रंश में है। शाबर श्रादि म्लेच्छ भाषाओं में भी मंत्ररहस्य का व्याख्यान होता है। या लघुतंत्ररावटीका विमल-प्रभा में है। मंत्र-नय को तीनों धाराएँ परस्पर मिलती हैं । वस्तुतः यही बौद्ध तान्त्रिक-धर्म है। यदि महाशक्ति की अाराधना ही तान्त्रिक साधना का वैशिश्य माना बाय तो इसमें संदेह नहीं कि पारमिता-नय भी तान्त्रिक कोटि में गिना जायगा। कायान की साधना में मंत्र का प्राधान्य रहता है। इसी कारण कभी कमी वयान को मंत्रयान भी कहते हैं। सहबयान में मंत्र के अपर बोर नहीं दिया गया है। परन्तु वायान तथा कालचस्यान की योग-साधना में मंत्र का ही प्राधान्य माना जाता है। प्रसिद्धि है कि गौतम बुद्ध के पूर्ववर्ती बुद्ध दीपंकर इस मार्ग के प्रादि उपदेष्टा थे। किन्तु वनमार्ग काल-क्रम