पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४२१

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पंचवा अध्याय वो अबादिपंचक में से किसी एक से समन्वागत होता है, वह धातुक सत्व है। इसका अविनामाव है, अतश्रद्धादि पंचेन्द्रिय से समन्वागत होता है, वह जीवित, मन उपेक्षा से भी समन्वागत होता है। जो श्राजेन्द्रिय या श्राचातावीन्द्रिय से समन्वागत होता है, वह ग्यारह इन्द्रियों से अर्थात् जीवितेन्द्रिय, मन-इन्द्रिय, सुख, सौमनस्य, उपेक्षा, श्रद्धादि पंचेन्द्रिय और ग्यारहवी आशेन्द्रिय या श्राज्ञातावीन्द्रिय से अन्वित होता है । जो श्राबातावीन्द्रिय से समन्वागत होता है, वह अवश्य तेरह इन्द्रियों से युक्त होता है । वस्तुतः काम-धातु में ही दर्शन मार्ग का श्रासेवन होता है। अत: इस इन्द्रिय से सम- न्वागत सत्व कामावचर सत्व है । वह अवश्य जीवित , मन, कार्य, चार वेदनेन्द्रिय, अद्धादि पंचेन्द्रिय और श्रावास्यामीन्द्रिय से युक्त होता है । यह आवश्यक नहीं है कि वह दौमनस्य, चक्षुरादि से समन्वागत हो । वह वीतराग हो सकता है । उस अवस्था में दौर्मनस्य का उसमें अभाव होता है । वह अन्धादि हो सकता है। विच लि, मन और विज्ञान-शास्त्र में चित्त और चैत्त के भिन्न नाम हैं | चित्त (माइंड) मन ( रीजन ), विज्ञान ( कान्शसनेस ) ये नाम एक अर्थ के वाचक है। न्याय-वैशेषिक में केवल 'मन' शब्द का प्रयोग है । जो संचय करता है, यह चित्त है (चिनोति)। इसका अर्थ यह है कि यह कुशल-अकुशल का संचय करता है । यही मन है, क्योंकि यह मनन करता है (मनुते )। यही विज्ञान है, क्योंकि यह अपने बालंबन को जानता है । कुछ का कहना है कि 'चित्त' नाम इसलिए है, क्योंकि यह शुभ-अशुभ धातुओं से चित्रित है । यह 'मन' है, क्योंकि यह अपर-चित्त का श्राश्रयभूत है। यह विज्ञान है, क्योकि यह इन्द्रिय और अालबम पर प्राश्रित है । श्रतः इन तीन नामों के निर्वचन में भेद है, किन्तु ये एक ही अर्थ को प्राप्त करते हैं। इन तीन अाख्यानों में विज्ञान सब से प्राचीन है। सूत्रान्तों में जहाँ प्रतिसन्धि का वर्णन आता है, वहाँ 'विज्ञान' शब्द ही प्रयुक्त होता है । पश्चात् यह आख्या प्रायः एकान्ततः विचानन के विविध प्रकारों के लिए ही प्रयुक्त होने लगी। विज्ञान प्रतिविषय की उपलब्धि है। यह मन-आयतन है। धातु की देशना में ये सात धातु है-अर्थात् छ विज्ञान और मन । विज्ञान-स्कन्ध छः विज्ञान-काय है। यह पांच प्रसाद-रूप और मन को प्रत्यय बना उत्पन्न होते है। विशान की उत्पत्ति प्रत्यक्षतः विषय और प्रसाद-रूप के संघटन से होती है। स्थविरवाद-स्थविरवादी षडविज्ञान के अतिरिक्त भी एक दूसरा विभाग ८६ विशन का करते है। यह संग्रह अन्य निकायों में नहीं पाया जा । स्थविरवादियों के चित्त-संग्रह विभाग में चित्त की जितनी भूमियाँ ( अवस्थाएँ ) संभव है, वे सब संगृहीत है। जातिभेद से यह तीन प्रकार के हैं। कुशल, अकुशल और अव्याकृत । श्रवचरभेद से यह चार प्रकार के हैं :- कामायचर, रूपावचर, अरूपावचर, लोकोत्तर । साधारणत: चित्त ( विशान ) के छः विभान प्राय के अनुसार किये पाते।