पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४२४

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नहीं हैं। यदि प्रश्न उनका है, जिनके लिए चिन्न उपस्थित नहीं किया जाता, तो चित्त-चैत्त स्वयं ही अधिमोक्ष होंगे। विशानवादी कहते हैं कि जो वस्तु अनुभूत नहीं है, उसकी स्मृति नहीं हो सकती। अनुभूत वस्तु की भी स्मृति नहीं होती, यदि अमिलपन न हो। इसलिए स्मृति सर्वग नहीं है। किन्तु सर्वास्तिवादियों के अनुसार चित्त का प्रत्येक उत्पाद स्मृति-सहगत है । यह स्मृति अनागत-काल में स्मरण में हेत है। समाधि भी सर्वग नहीं है, क्योंकि विक्षेप की अवस्था होती है। संघभद्र कहते हैं कि विषेप की अवस्था में भी समाधि उत्पन्न होती है। किन्तु तब यह सूक्ष्म और प्रच्छन्न होती है। विशनवादी का उत्तर है कि यदि समाधि से श्राशय उससे है, जो चित्त-चैत्तों को एक साय केवल एक बालंबन की ओर प्रवृत्त करता है, तो यह अयथार्थ है, क्योंकि यह स्पर्श की क्रिया है | यदि वह यह सोचते हों कि समाधिवश चित्त श्रालंबन को ग्रहण करता है, और इसलिए, वह सर्वग है, तो हमारा उत्तर निषेधात्मक होगा, क्योंकि मनस्कारवश चित्त बालंबन ग्रहण करता है । प्रज्ञा भी सर्वग नहीं है, क्योंकि जब उपपरीक्ष्य विषय का अभाव होता है, जब चित्त मूढ़ और मन्द होता है, तब प्रविचय नहीं होता। संप्रभद्र का मत है कि उस समय भी प्रशा होती है, किन्तु यह सूक्ष्म और प्रच्छन्न होती है। विज्ञानवादी कहते हैं कि सर्वत्रग दश है--सूत्र-समत सिद्धान्त नहीं है। केवल स्पेशादि पांच सर्वत्रग हैं । दश महाभूमिक चैत्त भिन्न भिन्न लक्षण के हैं । चित्त-चैत्त का विशेष निश्चय ही सूक्ष्म है । चित्त-चैत्तों का यह विशेष उनके प्रबन्धों में भी दुर्लक्ष्य है । फिर क्षणों का क्या कहना बिनमें उन सबका अस्तित्व होता है। दय शस-महाभूमिक जो चैत्त कुशल-महाभूमि से उत्पन्न होते हैं, वे कुशल-महाभूमिक कहलाते हैं । ये वे धर्म हैं, जो सर्व कुशल-चित्त में पाए जाते हैं । इस प्रकार हैं :-श्रद्धा, अप्रमाद, प्रश्रन्धि, उपेक्षा, ही, अपत्रपा, मूलद्वय, अविहिंसा और वीर्य । १. मदा-चित्त-प्रसाद है। एक मत के अनुसार यह कर्मफल, त्रिरत्न और चतुः- सत्य में अभिसंप्रत्यय है। २. अश्माद--कुशल-धर्मों का प्रतिलंभ और निषेवण भावना है । वस्तुतः यह भावना व है । एक दूसरे निकाय के अनुसार अप्रमाद चित्त की अारक्षा है । .. प्रमिवह धर्म है, जिसके योग से चित्त की कर्मण्यता, चित्त का लाधव होता है। सुबधु और सौत्रान्तिकों के अनुसार प्रन्धि काय और चित्त की कर्मण्यता है। यह दौष्टुल्य का प्रतिपक्ष है। १. स्पेशा-चित्त-समता है। यह वह धर्म है, जिसके योग से चित्त समभाग में अमाभोग में वर्तमान होता है। यह संस्कारोपेक्षा है । ( तत्र मज्झत्तता)। ५.६.दी-अपनपा-उनका लक्षण सगौरवता और सप्रतीशता, सभयवशवर्तिता, और मयदर्शिता है। यह एक कल्प है। दूसरे कल्प के अनुसार इनका लक्षण प्रात्मापेक्षया लम्चा,