पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४३०

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क्योंकि इस संप्रयोग में प्रत्येक बाति का एक ही द्रव्य होता है, यथा-एक काल में एक ही चित्त-द्रष्य उत्पन्न होता है, तथा इस एक चित्त-द्रव्य के साथ एक वेदना-द्रव्य एक संचा-द्रव्य, और प्रत्येक जाति का एक एक चैत्त संप्रयुक्त होता है। पित से पैसों का सहारमा प्रत्येक प्रकार के चित्त के साथ कितने चैच अवश्य उत्पन होते है ? कामावचर चित्त पंचविध ई-१. कुशल चित्त एक है, २-३. अकुशल द्विविध है-यह प्रावेणिक है, अर्थात् अविद्यामात्र से संप्रयुक्त है, और रागादि अन्य क्रश-संप्रयुक्त है। ४-५. अव्याकृत चित्त भी द्विविध है-निस्ताव्याकृत, अर्थात् सत्काय-दृष्टि, और अन्ताह- दृष्टि से संप्रयुक्त, और अनिवृताब्याकृत अर्थात् विपाकजादि । १. कामावचर चित्त सदा सवितर्क सविचार होता है । इस चित्त में बब यह कुशल होता है, २२ चैत होते हैं-दश महाभूमिक, दश कुशल और दो अनियत, अर्थात् वितर्क और विचार | बबू कुशल चित्त में कौकृत्य होता है, तब पूर्ण संख्या २३ होती है । २. आवेणिक और दृष्टियुक्त अकुशल चित्त में २० चैत्त होते हैं। श्रावेणिक चित्त अविद्यामात्र से संप्रयुक्त और रागादि से पृथग्भूत चित्त है । दृष्टियुक्त अकुशल-चित्त मिथ्या- दृष्टि, दृष्टिपरामर्श, शीलनतपरामर्श से संप्रयुक्त चित्त है। दृष्टि और अन्तग्राहदृष्टि से संप्रयुक्त चित्त अकुशल नहीं है, किन्तु निवृता- इन दो अवस्थाओं में अकुशल चित्त में दश महाभूमिक, छ: क्लेश, दो अकुशल और दो अनियत अर्थात् वितर्क और विचार होते हैं । वसुबन्धु कहते हैं कि दृष्टि की कोई पृथक् संख्या नहीं है, क्योंकि दृष्टि प्रज्ञा-विशेष है, प्रज्ञा महाभूमिक है । जब यह क्रोधादि चार रेशों में से किसी एक से या कोकृत्य से संप्रयुक्त होता है, तब २१ होते हैं। द्वितीय प्रकार का अकुशल चित्त जो रागादि से संप्रयुक्त है:- ३. राग, प्रतिध, मान, विचिकित्सा से संप्रयुक्त अकुशल चित्त में २१ चैत्त होते हैं। पूर्वोक २० और रग या प्रतिघ, या मान या विचिकित्सा । क्रोधादि पूर्व वर्णित उपायों में से किसी एक से संप्रयुक्त । ४. निवृताब्यात चित्त में १८ चैतसिक होते है। कामधातु का अभ्याकृत चित्त निस्त, अर्थात् केशाच्छादित होता है; जब वह सत्कायदृष्टि या अन्तग्राहदृष्टि से संप्रयुक्त होता है । इस चित्त में दश महाभूमिक, कामेश और वितर्क-विचार होते हैं। ५. अनिवृताव्याकृत चित्त में बारह चैत्त होते हैं, दश महाभूमिक, वितर्क, विचार। 'बहिर्देशकों को यह इष्ट है कि कौकृत्य भी श्रव्याक्त है, यथा--स्पन में । अव्याकृत कौहत्य से संप्रयुक्त अनिवृताव्याकृत चित्त में तेरह चैत्त होंगे। मिड सर्व अविरुद्ध है । जहाँ यह होता है, वहां संख्या अधिक हो जाती है। मिड कुशल, अकुशल, अन्याकत है । जिस चित्त से यह संप्रयुक्त होता है, उसमें २२ के स्थान में