पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४३२

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२४ पौडधर्मस्पर्शन है। अनियत में एक ( पहला ) सर्व होता है। कुशलादि चित्तों में पाए जाते हैं। मूल क्लेशों के विभाग नहीं है। उपक्लेशों को दो में विभक करते है--१. द्रव्य-सत् , २. प्रशति-सत् । २० उपक्लेशों में दश परीत्त और तीन महोपक्लेश, अर्थात् मुषितास्मृतिता, प्रमाद और असंप्रबन्य प्राप्ति-सत् है। शेष सात द्रव्य-सत् हैं। ये पाहीक्य, अनपत्राप्य, श्राश्रय, कौसीय, औद्धत्य, स्त्यान और विक्षेप हैं । एक दूसरा विभाग ऊपर वर्णित हो चुका है:-परीत्तोपळेश, मध्योपलेश, और महोपझेश। चैतसिकों का एक और विभाग पाठ विशानों के अनुसार है। आठवाँ विज्ञान आलय-विज्ञान केवल पांच सर्वत्रगों से संप्रयुक होता है । यद्यपि श्रालय-विज्ञान अन्य चित्त-चैत्तों के बीच का अालय है, तथापि इसका संप्रयोग प्रत्यक्षतः किसी अन्य चैतसिक से नहीं होता। सातवाँ विज्ञान (मन ) पाँच सर्वत्रगों के अतिरिक्त मोह, लोभ, मान और दृष्टि इन चार क्लिष्ट चैतसिकों से भी संप्रयुक्त होता है। ये चैतसिक श्रात्ममोह, श्रात्मदृष्टि, अात्ममान और प्रामस्नेह है। इसका कारण यह है कि मन मननात्मक है । अपरावृत्तावस्था में यह कल्पित श्रात्मा की मन्यना करता है। मन केवल इन नौ चैतसिकों से संप्रयुक्त है। यह एक भत है। एक दूसरे मत के अनुसार मन का संप्रयोग कुछ उपक्लेशों से भी होता है । पड्विंशान-इनका संप्रयोग सब चैतसिकों से होता है । स्थविरवाद - हम पूर्व कह चुके हैं कि इस बाद में चित्त के ८६ विभाग हैं। यह इस वाद का विशेष है। ये ५२ चैतसिक भी मानते हैं। ये दिखाते हैं कि कौन चैतसिक धर्म कितने चितों से संप्रयुक्त होता है। चित्त-विप्रयुक्त धर्म अब हम चित्त-विप्रयुक्त धर्मों का विचार करेंगे। चित्त-विप्रयुक्त ये है:-प्राप्ति, अप्राप्ति, सभागता, प्रासंज्ञिक, दो समापत्तियां, जीवितेन्द्रिय, लक्षण, नाम-कायादि तथा एवं- बातीयक धर्म । ये धर्म-चित्त से संप्रयुक्त नहीं होते। ये रूप-स्वभाव नहीं है । ये संस्कार-स्कन्ध में संग्रहीत है, इन्हें चित्त-विप्रयुक्त संस्कार कहते हैं। क्योंकि ये चित्त से विप्रयुक्त हैं, और अरूपी होने के कारण चित्त के समानजातीय है। स्थविरवाद में इस विभाग का उल्लेख नहीं है। उनके उपादाय रूपों की सूची में चार लक्षण और जीवितेन्द्रिय पाए, बाते हैं। सर्वास्तिवादी इन्हें चित्त-विप्रयुक्त संस्कार मानते हैं। जात्यादि लक्षण इन्द्रियों के विकार है। ये भौतिकों में क्यों संगृहीत हैं, यह स्पष्ट नहीं है। सौत्रान्तिक चित्त-विप्रयुक्त संस्कार के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते । 'प्राप्ति' शब्द न्यायभाष्य [४।२।१२ ] में 'सबन्ध' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है-एकस्यानेकत्राश्रयाश्रितसंबन्धलक्षणा प्राप्तिः । अवयव-श्रयथवी के विचार में यह वाक्य पाया है। अवयव समूह श्राश्रय है, अषयवी आमित है। इनका संयोग संबन्ध नहीं है, क्योंकि इनका कभी एक दूसरे से विभाग संभव नहीं