पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४३४

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की उन्हीं प्राप्तियों से सब समन्वागत है। क्या आप कहते हैं कि यह भेद प्राप्ति के बिनो के कारण होता है ? हमारा उत्तर है कि यह हेतु ही मृदु-मध्य-अधिमात्र क्लेश की उत्पत्ति में एकमात्र हेतु है । जिस कारण से यह भेद होता है, उसी कारण से उनकी उत्पत्ति भी हो सकती है। इसलिए प्राप्ति उत्पत्ति-हेतु नहीं है। सर्वास्तिवादी-कौन कहता है कि प्राप्ति धर्मों की उत्पत्ति का हेतु है। हम उसका यह कारित्र नहीं बताते । हमारे अनुसार प्राप्ति वह हेतु है, जो सत्वों के भाव की व्यवस्था करता है। हम इसका व्याख्यान करते हैं :–मान लीजिए कि प्राप्ति का अस्तित्व नहीं है तो लौकिकमानस-आर्य और पृथग्जन का क्या व्यवस्थान होगा १ भेद केवल इसमें है कि प्रार्य में कतिपय अनासव धर्मों की प्राप्ति तब भी होती है, जब उनका लौकिक मानस होता है । सौत्रान्तिक:-हमारे मत से यह व्यवस्थान हो सकता है कि पहला महीण क्रश है, और दूसरा अप्रहीण क्लेश है। सर्वास्तिवादी-निःसन्देह; किन्तु प्राप्ति के अस्तित्व को न मानकर यह कैसे कह सकते हैं कि इनका क्लेश प्रहीण है, इनका अप्रहीण है। प्राप्ति के होने पर यह व्यवस्थान सिद्ध होता है। श प्रहीण तभी होते हैं, जब जैश-प्राप्ति का विगम होता है । जब तब उसकी प्राप्ति रहती है, तब तक क्लेश प्रहोण नहीं होता। वैभाषिक कहते हैं कि 'प्राप्ति' और 'अप्राप्तिः द्रव्य-सत् है। वैभाषिक नय से त्रैयश्चिक धर्मों की प्राप्ति त्रिविध है। अतीत धर्मों की प्राप्ति अतीत, प्रत्युत्पन्न, अनागत होती है । इसी प्रकार प्रत्युत्पन्न और अनागत धर्मों को समझना चाहिये । प्रत्येक धर्म की यह त्रिविध प्राप्ति नहीं होती, यया-विपाकच धर्मों की प्राप्ति केवल इन धर्मों की सहज होती है। इनके उत्पन्न होने के पूर्व और निरुद्ध होने के पश्चात् इन धर्मों की प्राप्ति नहीं होती। कुशल, अकुशल, अव्याकृत धर्मों की प्राप्ति यथाक्रम कुशल, अकुशल, श्रव्याकृत होती है। धात्वाप्त धर्मों की प्राप्ति स्वधातुक होती है । अधातु-पतित अनासव धर्मों की प्राप्ति चतुर्विध है। यह त्रैधातुक है । यह अनास्तर है। १. अप्रतिसंख्या-निरोध की प्राप्ति उस धातु की होती है, जिसमें वह पुद्गल उत्पन्न होता है, वो उसकी प्राप्ति करता है । २. प्रतिसंख्या-निरोध की प्राप्ति रूपावचरी, अरूपावचरी और अनाव होती है । ३. मार्ग-सत्य की प्राप्ति अनासव ही होती है। ४. शैक्ष धर्मों की प्राप्ति शैली है, अथैन धर्मों की प्राप्ति अशैक्षी है। नशैक्षाशैक्ष धर्मों की प्राप्ति त्रिविध है। ये धर्म सासव और असंस्कृत हैं। इनको संज्ञा इसलिए है, क्योंकि यह शैक्ष और अशैक्ष धर्मों से भिन्न है। १. सासव धर्मों की प्राप्ति नैवशेतीनाशैक्षी है। २. इसी प्रकार अनार्य से प्राप्त अप्रति की प्राप्ति और प्रति की प्राप्ति । ३. प्रति की प्राप्ति शैक्षी है, यदि निरोध शैक्षमार्ग से प्राप्त होता है। अशैक्षी है, यदि वह निरोध अशैक्ष मार्ग से प्राप्त होता है।