पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४३५

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हेय धर्मों का प्राप्ति-भेद है। अहेय धर्मों की प्राप्ति द्विविध है। अप्रति की प्राप्ति भावनाहेय है। इसी प्रकार अनार्य से प्राप्त प्रति की प्राप्ति अनासव, अहेय है । इसी प्रकार मार्ग-सत्य की प्राप्ति को जानना चाहिये । अव्याकृत की प्राप्ति सहज है। अप्राप्ति अनिवृताव्याकृत है। लशों की अप्राप्ति क्लिष्ट नहीं है, क्योंकि इस विकल्प में केस-विनिर्मुक्त पुद्गल में इसका प्रभाव होता है । यह कुशल नहीं है, क्योंकि कुशलमूल- युधिन पुद्गल में इसका प्रमाव होगा। अप्राप्ति की विहानि प्राप्ति और भूमि-संचार से होती है। यथा आर्य मार्ग के लाभ से और भूमिसंचार से पृथम्बनत्व विहीन होता है। अनुमाति, अनुमपाति-प्राप्ति और अप्राप्ति की भी प्राप्ति और अप्राप्ति होती है। इन्हें अनुप्राप्ति, अनुश्नप्राप्ति कहते हैं । अतः दो प्राप्ति है। मूल प्राति और अनुप्राप्ति या प्राप्ति-प्राप्ति । क्या इस बाद में प्राप्तियों का अनवस्थाप्रसंग नहीं होगा ? नहीं, क्योंकि परस्पर समन्वागम होता है । प्राप्ति-प्राप्ति के योग से प्राप्ति से समन्वा- गम होता है, और प्राप्ति के योग से प्राप्ति-प्राप्ति से समन्वागम होता है। जब एक सन्तति में एक धर्मविशेष का उत्पाद होता है, तो तीन धर्मों का सहोत्साद होता है । अर्थात् १. यही धर्म जिसे मूल धर्म कहते हैं, २. मूल धर्म की प्राप्ति, ३. इस प्राप्ति की प्राप्ति । प्राप्ति-उत्पाद- वश वह सत्व मूल धर्म से और प्राप्ति-प्राप्ति से समन्वागत होता है। अतः अनवस्थाप्रसा नहीं होता । अब कुशल या क्लिष्ट धर्मों की उत्पत्ति होती है, तो उसी क्षण में तीन धर्मों का सहोत्पाद होता है। इनमें यह कुशल या क्लिष्ट धर्म संग्रहीत है। तीन धर्म ये है :-मूल धर्म, उसकी प्राप्ति, इस प्राप्ति की प्राप्ति । द्वितीय क्षण में छ: धर्मों का सहोत्पाद होता है, अर्थात् मूल धर्म की प्राप्ति, प्रथम क्षण की प्राप्ति, प्राप्ति की प्राप्ति, तया तीन अनुप्राप्ति, फिनके योग से पूर्वोक्न तान प्राप्तियों में वह समन्यागत होता है । तृतीय क्षण में अठारह धर्मों का सहोसाद होता है। इस प्रकार प्राप्तियों का उत्तरोत्तर वृद्धि-प्रसंग होता है। अनादि अनन्त संसार में यह अनन्त संख्या में उत्पन्न होती है। वसुबन्धु कहते हैं कि यह प्राप्तियों का अति उत्सव है, कि ये अरूपिणी अता ये अवकाश का लाभ करती है । यदि ये प्रतिघातिनी होती, तो एक प्राणी की प्राप्तियों को नीला- काश में स्थान न मिलता। मिष-समाग (समागता) यह एक द्रव्य है, एक धर्म है; जिसके योग से सत्व तथा सत्व-संख्यात धर्मों का परस्पर साहश्य = सभाग ) होता है । शास्त्र में इस द्रव्य की निकाय-सभाग संशा है । यह स्खों की स्वभाव-समता है। समागता दो प्रकार की है। अभिन्न और भिन्न | प्रथम सभागता सर्व. सत्ववर्तिनी है। उसके योग से प्रत्येक सत्व का सब सत्वों के साथ सादृश्य होता है। उसे सत्व-सभागता कहते हैं। द्वितीय में अनेक अवान्तर भंद हैं। सत्व, धातु, भूमि, गति, योनि जाति, व्यंचनादि के अनुसार भिन्न होते हैं। इतनी ही सभागता होती है । इनके योग से एक विशेष प्रकार का प्रत्येक सत्व उस प्रकार के सत्वों के सदृश होता है।