पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४३६

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पुनः सत्व-संख्यात धर्मों के लिए एक सभागता है।-धर्म-सभागता । यह स्कन्ध-प्रायतन- धातुतः है। सत्व-समागता नामक अविशिष्ट द्रव्य के अभाव में अन्योन्य विशेष भिन्न सखों के लिए सत्वादि अभेद बुद्धि और प्राप्तियां कैसे होगी। इसी प्रकार धर्म-सभागता के योग से ही स्कन्ध-धातु श्रादि बुद्धि और प्रशस्ति युक्त है। विभिन्न वादियों की मालोचमा सौत्रान्तिक सभागता नामक धर्म को स्वीकार नहीं करते, और इस बाद में अनेक दोष दिखलाते हैं। वे कहते हैं कि लोक सभागता को प्रत्यक्ष नहीं देखता, वह प्रशा से सभागता का परिच्छेद नहीं करता, क्योंकि सभागता का कोई व्यापार नहीं है, जिससे उसका ज्ञान हो । यद्यपि लोक सत्व-सभागता को नहीं जानता, तथापि उसमें सत्वों के जात्यभेद की प्रतिपत्ति होती है। अतः सभागता के होने पर भी उसका क्या व्यापार होगा ? पुनः निकाय को शालि-यवादि की असत्व-समागता भी क्यों नहीं इष्ट है । इनके लिए सामान्य प्राप्ति का उपयोग होता है। पुनः जिन विविध सभागताओं की प्रतिपत्ति निकाय को इष्ट है, वे अन्योन्य भिन्न है। किन्तु सब के लिए सामान्य बुद्धि और प्राप्ति होती है :-सब सभागता है। सौत्रान्तिक कहते हैं कि यह वैशेषिकों का सामान्य पदार्थ है, किन्तु ये 'विशेष' नामक एक दूसरा द्रव्य भी मानते हैं, जिससे जाति के लिए विशेष बुद्धि और प्रशप्ति होती है। वैभाषिक कहते हैं कि उनका वाद वैशेषिकों के वाद से भिन्न है । वैशेषिक मानते हैं कि सामान्य एक पदार्थ है, जो एक होते हुए भी अनेक में वर्तमान है। वैशेषिक सामान्य और विशेष को पट पदार्थों में संग्रहीत करते हैं। उनका सामान्य निस्य और व्यापक है, बुद्धयपेक्ष है। [ वैशेषिक सूत्र, ११२।३] सामानों का भाव सामान्य है । यह तुल्यार्थता है, इसका विपर्यय विशेष है । भिन्नी में जो अभिन्न बुद्धि होती है, उसका सामान्य व्यपदेश होता है। वस्तुभूत निमित्त के बिना अभिन्न बुद्धि नहीं होती। यह निमित्त सामान्य है । सामान्य द्विविध हैं :-पर, अपर, । पर-मामान्य सत्ता है । अपर-सामान्य मत्ताव्यापि द्रव्यत्वादि है। सामान्य की अनुवृत्त-बुद्धि होती है। विशेष की व्यावृत्त-बुद्धि होती है। यह द्रव्य है, यह द्रव्य है, इस प्रकार का अनुवृत्त प्रत्यय होने पर भी यह गुण नहीं है, यह कर्म नहीं है, ऐसा विशेष प्रत्यय होता है। नैयायिक सामान्य का अस्तित्व मानते हैं। बाति-जातिमान में समवाय संबन्ध है। यथा--अवयय-अवययी, गुण-गुणी, क्रिया-क्रियावान् का संबन्ध समवाय है। सामान्य एक और नित्य है । सामान्य की सत्ता व्यक्ति से पृथक है । व्यक्तियों का उत्पाद और विनाश होता है, किन्तु सामान्य ( जाति ) नित्य है। वैशेषिक कहते है कि प्रत्येक सत्व में सत्व-सभागता अन्य-अन्य होते हुए भी अभिन कहलाती है, क्योंकि सादृश्य है। यह एक द्रव्य है, किन्तु इसको एक और नित्य मानना वैभाषिको की भूल है।