पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४३७

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सौत्रान्तिक समागता का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। दिङनाग, धर्मकीर्ति का मत है.-"प्रत्यक्ष अपने अपने विषय के स्वलक्षण का प्रहय है । यह निर्विकल्पक है, अतः जाति, सामान्य का प्रत्यक्ष नहीं होता । यदि यह सविकल्पक प्रत्यक्ष है, अर्थात् बुद्धयपेक्ष है, तो यह अलीक है ।" इनके लिए निर्विकल्पक प्रत्यक्ष ही वस्तु-सत् है, क्योंकि यह कल्पनापोढ़ है, नाम-बात्यादि से असंयुत है। पार्थसारथि-कृत शास्त्रदीपिका में कहा है [ पृ. ३८१-३८.२ ] विकल्पाकारमात्र सामान्यम्, अलीकं वा। स्वलक्षण ही वस्तु-सत् है। सामान्य विकल्पाकारमात्र है, अतः अलीक है। सामान्य अनुमान सिद्ध भी नहीं है, क्योंकि अनुमान का बालंबन विकल्प होता है। भासंशिक, दो समापत्तियाँ मासंगिक और मसंशि-समापति-जो मत्व, असंशि या असंशि-देवों में उपपन्न होते हैं, उनमें एक धर्म होता है, जो चित्त-चैत्तों का निरोध करता है, और जिसे 'श्रासंज्ञिक कहते हैं। इस धर्म में अनागत अध्व के चित्त-वैत्त कालान्तर के लिए संनिसद्ध होते हैं, और उत्पत्ति का लाभ नहीं करते । यह धर्म उस धर्म के सदृश है, जो नदी-तोय का निरोध करता है, अर्थात् सेतु के सदृश है । यह धर्म एकान्ततः संशि-समापत्ति का विपाक है। इस समापत्ति के अभ्यास के लिए योगी को चतुर्थ ध्यान में समापन होना चाहिये। मोक्ष की इच्छा से वह इसका अभ्यास करता । योगी की यह मिथ्या कल्पना होती है कि प्रासंज्ञिक यथार्थ मोक्ष है। जो योगी इस समापत्ति का लाभी होता है, वह वैभाषिकों के अनुसार उसका पुनः उत्पादन कर अजि सत्वों में उत्पन्न होता है । केवल पृथग्जन इस समापत्ति का अभ्यास करते हैं, आर्य नहीं | असंजिदेव उपपत्ति-काल और न्युति-काल में संज्ञी होते हैं। असंशि-सत्वों के लोक से च्युत हो वह अवश्य कामधातु में पुनः उपपन्न होते हैं, अन्यत्र नहीं। वस्तुतः जिसके योग से ये सत्व असजियों में उपपन्न होते है, उस अमंजि-समापत्ति के संस्कार का परिक्षय होता है । उनकी युति होती है, यथा--क्षीण-वेग बाण पृथ्वी पर पतित होते हैं। निरोष-समापति-यह समापत्ति असंशि-समापत्ति के सदृश है । यह एक धर्म है, जो चित्त-चैत्तों का निरोध करता है। केवल आर्य इस समापत्ति की भावना करते हैं, क्योंकि वह शान्त-विहार-संचा-पूर्वक मनसिकार से उसका ग्रहण करते हैं। असंशि-समापत्ति की भावना मोक्ष-संज्ञा-पूर्वक मनसिकार से असंज्ञा का ग्रहण करने से सिद्ध होती है; यह भवाग्रज है । अर्मशि-समापत्ति चतुर्थ-ध्यान-भूमिक है । उसका उत्पाद दो धातुओं में से किसी में होता है। निरोध शुभ है । इसके दो प्रकार के विपाक है-उपपद्य-वेदनीय या अपर-पर्याय- वेदनीय । यह 'अनियत' भी है, क्योंकि जिस योगी ने इस समापत्ति का उत्पाद किया है, वह इष्टधर्म में निर्वाण का लाभ कर सकता है। यह समापत्ति भवान के चार स्कन्ध का उत्पाद करती है । इसका लाम वैराग्यमात्र से नहीं होता, यह प्रयोग-लम्य है।